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वक्रोक्तिजीवितम्
पीडित करनेवाले (अर्थात् उसे काट डालनेवाले ) तुम्हारे फरसे के साथ स्पर्धा करनेवाला यह चन्द्रहास ( मेरा खड्ग ) लज्जित हो रहा है ॥ ६६ ॥
अत्र चन्द्रहासो लज्जत इति पूर्ववत् कारकवैचित्र्यप्रतीतिः । पुरुषवैचित्र्यविहितं वक्रत्वं विद्यते-यत्र प्रत्यक्तापरभावविपर्यासं प्रयुञ्जते कवयः काव्यवैचित्र्यार्थ युष्मद्यस्मदि वा प्रयोक्तव्ये प्रातिपदिकमात्र निवघ्नन्ति । यथा
यहां पर पहले की ही भांति 'चन्द्रहासो लज्जते' इस वाक्य-रचना द्वारा (अचेतन पदार्थ चन्द्रहास में चेतनता का आरोप कर उसे, लज्जित होता है 'लज्जतें' इस क्रिया के कर्ता के रूप में प्रयोग कर कवि ने ) कारक की विचित्रता को प्रतिपादित किया है।
(इस प्रकार कारक वैचित्र्यजन्य 'प्रत्ययवक्रता' की व्याख्याकर, पुरुषवैचित्र्यविहित वक्रता का प्रतिपादन करने जा रहे हैं
पुरुषवंचियजन्य वक्रता ( वहाँ ) होती है जहाँ कविजन (प्रथमादि पुरुष को) अपने भाव के विपर्यास को परित्यक्त करके प्रस्तुत करते हैं, अर्थात् काव्य में वैचित्र्य ( की सृष्टि करने ) के लिए ( मध्यम पुरुष ) युष्मद् अथवा ( उत्तम पुरुष ) अस्मद् ( शब्द ) को प्रयुक्त करने के बजाय (प्रथम पुरुष ) केवल प्रतिपादिक ( शब्द को) प्रयुक्त करते हैं । जैसे
अस्मद्भाग्यविपर्ययाधदि परं देवो न जानाति तम् ।। ६० ।। (विभीषण के कथन कि ) किन्तु यदि हम सभी के दुर्भाग्य के कारण .. स्वामी ( आप रावण ) उस ( समस्त लोकों में प्रसिद्ध शौर्यवाले राम) को नहीं जानते ( तो क्या कहा जाय ) ॥ ६७ ॥
अत्र त्वं न जानासीति वक्तव्ये वैचित्र्याय देवो न जानातीत्युक्तम् ।।
यहाँ पर 'तुम नहीं जानते हो' (त्वं न जानासि, इस प्रकार मध्यम पुरुष का प्रयोग न कर, उस ) के स्थान पर 'स्वामी नहीं जानते' ( देवो न जानाति, ऐसे प्रथम पुरुष ) का प्रयोग कर ( कवि ने काव्य में अपूर्व रमणीयता की सृष्टि की है इस उदाहरण में प्रातिपदिक 'देव' का प्रयोग 'न जानाति' इस क्रियापद के साथ हुआ है, किन्तु कहीं २ विना क्रियापद के प्रयोग के केवल प्रातिपदिक का ही प्रयोग कविजन करते हैं ऐसा दिखाते हैं)। ___ एवं युष्मदादिविपर्यासः क्रियापदं विना प्रातिपदिकमात्रेऽपि हश्यते । यथा