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प्रथमोन्मेषः लक्षणवाक्ये पदमेकं व्याख्यातम् । इदानीं 'सहितौ' इति (१०) व्याख्यातुं साहित्यमेतयोः पर्यालोच्यते
इस प्रकार शब्द और अर्थ के ( काव्य में अभिप्रेत ) परमार्थ को बताकर (शब्दार्थों सहितो.''इत्यादि ( ११७ ) काव्य का लक्षण करनेवाले वाक्य में (प्रयुक्त) 'शब्दार्थों' इस एक पद का व्याख्यान किया गया। अब ( उसी काव्यलक्षण वाक्य में प्रयुक्त ) 'सहितौ' (११७ ) इस पद की व्याख्या करने के लिए इन दोनों (शब्द और अर्थ ) के साहित्य का परामर्श किया जाता है
शब्दी सहितावेव प्रतीतौ स्फुरतः सदा । सहिताविति तावेव किमपूर्व विधीयते ॥ १६ ॥
( अब साहित्य की व्याख्या करते समय पूर्वपक्षी प्रश्न करता है कि ) शब्द और अर्थ (तो) सर्वदा अवियुक्त होकर ही ( सहितो) ज्ञान के विषय बनते हैं ( अतः आप अपने काव्यलक्षण में ) वे दोनों (शब्द और अर्थ ) ही अवियुक्त ( होकर फाव्य ) होते हैं, इस प्रकार किस अपूर्व बात का विधान कर रहे हैं । ( अतः आपका प्रयास निरर्थक है ) ॥ १६ ॥
शब्दार्थावभिधानाभिधेयौ सहिताववियुक्तावेव सदा सर्वकालं प्रतीतौ स्फुरतः ज्ञाने प्रतिभासेते । ततस्तावेव सहिताववियुक्ताविति किमपूर्व विधीयते न किञ्चिदंपूर्व निष्पाद्यते, सिद्धं साध्यत इत्यर्थः । तदेवं शब्दार्थयोनिसर्गसिद्ध साहित्यम् । कः सचेताः पुनस्तदभिधानेन निष्प्रयोजनमात्मानमायासयति ? सत्यमेतत्, किन्तु न वाच्यवाचकलक्षणशाश्वतसंबन्धनिबन्धनं वस्तुतः साहित्यमित्युच्यते । यस्मादेतस्मिन् साहित्यशब्देनाभिधीयमाने कष्टकल्पनोपरचितानि गाक्कुटादि. वाक्यान्यसंबद्धानि शाकटिकादिवाक्यानि च सर्वाणि साहित्यशब्देनाभिधीयेरन् । तेन पदवाक्यप्रमाणव्यतिरिक्तं किमपि तत्त्वा. न्तरं साहित्यमिति विभागोऽपि न स्यात् ।
शब्द और अर्थ अर्थात् अभिधान ( वाचक ) और अभिधेय ( वाच्य ) सदा अर्थात् सभी समय सहित अर्थात् अवियुक्त होकर ही ( साथ-साथ ) प्रतीति में स्फुरित होते हैं अर्थात् बुद्धि में प्रतिभासित होते हैं। तो फिर उन्हीं दोनों ( शब्द और अर्थ ) को ( अपने काम्य-लक्षण में ) सहित अर्थात्