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________________ देवभरि विरइओ कहारयण कोसो ॥ सामन्नगुजाहिगारो। ॥ ६८ ॥ 164964564964 समणेण व वेसमणेण जह व भोगं अणीहमाणेण । एसा रेसायलोरगफारफणावेढवणीया ? ॥ ३१ ॥ ॥ ३२ ॥ इय कित्तिया कहिअंतु तुज्झ ? जे उज्झियं सजीयं पि । रैक्खिसु चिरं सुहि-सयण- देहदोहं पि काऊण ॥ ३८ ॥ विजएण जंपियं ताय ! जइ इमं ता सिरीए किं व फलं ? । न हि चाग-भोगओ वि हुँ कजमिमीए परं विंति ॥ ३३ ॥ दिता निद्दिट्ठा जे वि तए ताय ! जलनिहिप्पमुहा । ते वि मुहा बलि- हरिचंदमाइपडिवक्खजुत्तिया ॥ ३४ ॥ बढद वहंतत्रयजलं व वित्तं सया वि भुजंतं । खिअइ तदियश्कृवयनीरं व अभोगओ ताय ! ।। ३५ ।। तेऽणता जे लच्छि सवपयारेण वडिऊण मया । उवभुंजिऊण [दाऊण] जे पुणो ते जए विरला ३६ ॥ न य रक्खिया विचिट्ठइ सुदुट्ठमहिल व पुनरहियस्स । लच्छी नंदस्स व भूवइस्स ता मुंच "तं मोहं ॥ ३७ ॥ आ पाव ! ममावि हु सिक्खणाए बद्धक्खणो सिंहो होउं । बहुजंपिएण बालाणमहव सुलहो महुरभावो ॥ किं बहुणा जइ रे ! जीयमिच्छसे ठाहि ता निहुँयचेट्टो । जइ पुण विलासकाभी ता मह भवणाउ नीहरसु ॥ इय परुवयणभल्लीहिं सल्लिओ तह कहिं पि तेण सुओ। ऊसासो वि हु नीसरइ तस्स जह कटुचेट्टाए ॥ जइ विहु पिउणा सो तह “तिरिक्खिओ तह वि नो गओ विगई । सुकुलुग्गयाण पुरिसाणमहव एसेव होइ गई ।। पिउणावि अत्थसारो तद्वयणुप्पन्नतिवकोवेण । तेंह कह वि गोविओ ठाविओ य जह नजर दिवाणीहिं ॥ १ रसातलोरगस्फारफणावेष्टम् ।। २ उज्झित्वा ॥ ३ अरक्षन् ॥ ४हु सज्ज" प्रतौ ॥ ५ त्वं मोहम् || ६ 'शैक्ष:' शिशुरित्यर्थः ॥ ७ जीवितम् ॥ ८ निसृतवेष्टः ॥ ९ स कह प्रतौ । उच्छ्वासोऽपि हि निस्सरति तस्य यथा कष्टवेष्टया ॥। १० तिरस्कृतः ।। ११ विकृतिम् ॥ १२ उत्तरार्द्धेऽत्र मात्राधिक्यम् ॥ ३९ ॥ ४० ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ स्थिति-गति-सुख-दुःख- स्वम-निद्रान्त-हर्म्या-टवि-निशि-दिनपातोत्पातवेलासु येषाम् । व्रजति न परमेष्ठिश्रेष्ठमन्त्रो मनस्तस्त इह भवसमुद्राद् द्राग् बहिष्टाद् भवन्ति ॥ इति कथारत्नकोशे पश्ञ्चनमस्कारे श्रीदेवनृपकथानकं समाप्तम् ॥ १० ॥ पंचनमोकारे विहु अरहंतपयं पयंपियं पढमं । भत्ती य तम्मि बिहिया संसारुच्छेयणं कुणइ सा पुण नज्जइ कजेण तं च जिणभवणकारणेण फुडं । अहिगारिणा तयं पुण कारेयवं विहीए परं अहारी ये इह चिय निम्मलकुलसंभवो विभवभागी । गुरुमत्तो सुहचित्तो अच्चतं धम्मपडिबद्धो बहुसुँहि सयणो सुस्सप मुहगुणसंगओ विसुद्धमई । आणापहाणचिट्ठो दट्ठवो जिणहरविहाणे एत्थ विही पुण सुद्धा दवे सल्लाइवज्जिया भूमी । भावे य पैरापत्तियरहिया पढमं निरूवेजा वेसा- धीवर - ज्यारमा इदुग्गुच्छणिअजणरहिए । गिहि-साहूणं सद्धम्मबुद्धिजणगे पएसम्मि दलमवि य सर्वसिद्धं विसिकट्टिट्टगोवलप्पमुहं । उस्सग्गेणं सम्मं सुंसउणबुडीए घेत्तवं तयभावे बहुगुणसंभवे य अतहग्गहो विष्णुन्नाओ । ईहरा मग्गुच्छेओ सद्धाभंगो य सुगिहीण ० १ 'तत्' जिनभवनम् ॥ २य विहिय चिय प्रतौ ॥ ३ सुहस प्रती बहुमुत्स्वजनः ॥ ४ पराप्रीतिरहिता ॥ ६ दलमपि च स्वयंसिद्धं विशिष्टकाष्ठेष्टको पलप्रमुखम् । दल' चैत्यविधापनसाधनानि ॥ ७ मुख्यवृत्त्या ॥ ८ इतरथा । १२ ॥ ४ ॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ || 8 || ॥ ५॥ ॥ ६॥ ७॥ ॥ ८ ॥ ५-यूतकारादिजुगुप्सनीय || चैत्याधिकारे वि जयकथा नकम् ११। ॥ ६८ ॥ चैत्यविधापमाधिकारी तद्विधिश्च
SR No.009701
Book TitleKaharayana Koso
Original Sutra AuthorDevbhadracharya
AuthorPunyavijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1944
Total Pages393
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size30 MB
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