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श्री जम्बूस्वामी चरित्र
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कारण अन्य लोगों के द्वारा मारा गया। यह समाचार पाते ही बहुत से नगरवासी वहाँ इकट्ठे हो गये। उसी समय अचानक अर्हद्दास भी वहाँ आ गये। भाई को मूर्छित देखं व्याकुल चित्त हो, उसे उठाकर यत्नपूर्वक घर ले गये और वैद्यों को बुलाकर उसका अनेक प्रकार से उपचार कराया, परन्तु जिनदास को संतोष नहीं हआ, सो ठीक ही है - दुर्जन पर किया गया उपकार उसके स्वभाव के कारण व्यर्थ ही जाता है। उसे शांति एवं समाधान करने हेतु अर्हद्दास जिनवाणी के बोधप्रद शब्दों से समझाने लगे -
“भो भ्रात! इस संसार-समुद्र में अज्ञानी प्राणी पर को अपना मानकर और अपने को भूलकर पापों में प्रवर्तन करने से सदा दुःख ही भोगते रहते हैं। पापबंध के कारण इन मिथ्यात्व, विषय-कषायों के वश अनंतकाल से पंचपरावर्तनों को करता हुआ यह भ्रमण कर रहा है। हे बन्धु! तू ही प्रत्यक्ष देख रहा है कि एक धूर्त कर्म के कारण तूने कितने दुःख पाये। व्यसन तो कोई भी हो उसमें फँसने वाला महा दुःख-संकटों को प्राप्त होता है।"
तब जिनदास अपने बड़े भ्राता द्वारा कहे गये हितकारी वचनों को सुन पापों से भयभीत हो पश्चाताप करने लगा -
"हे भ्रात! आप मेरे परम उद्धारक हो, आपने मुझ जैसे अधम, व्यसनी, पापी को सद्बोध देकर संसार के दुःखों से बचा लिया। आज से मैं सभी व्यसनों को त्याग कर आपकी और जिनधर्म की शरण ग्रहण करता हैं।"
जिनदास के पश्चाताप भरे करुण वचनों को सुन बुद्धिमान अर्हद्दास ने छोटे भाई का जैसे धर्मसाधन हो वैसा उपाय किया। जिनदास ने अपने बड़े भाई से श्रावक के अणुव्रत ग्रहण कर लिये और आयु के अंत में समाधिमरण धारणकर देह छोड़कर इस यक्ष पर्याय को प्राप्त हुआ है। अत: यह ऐसा जानकर आनंद से नाच उठा है कि - "अपने ही वंश में अन्तिम केवली का जन्म होगा, यह विद्युन्माली देव मेरे बड़े भ्राता का चरम शरीरी पुत्र होगा, जिसका नाम जम्बूस्वामी होगा।"