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जैनधर्म की कहानियाँ प्राप्त कर ली। पृथ्वी की रक्षा करने में समर्थ वीर गुणधारी हो गये। पिता ने पुत्र की यौवन अवस्था देख सुन्दर एवं योग्य पाँच सौ कन्याओं के साथ बहुत ही हर्षोल्लास के साथ उनका विवाह कर दिया। सभी विद्याओं में निपुण होने के कारण राजकुमार योद्धाओं के साथ, मित्रों के साथ, वैद्यों के साथ और कभी ज्योतिषियों आदि के साथ नाना प्रकार के कार्यों को करते थे। कभी पवित्र जिन-मंदिरों में जाकर जिनेन्द्र पूजन-भक्ति आदि करते, कभी वीतरागी गुरुओं के पास जाकर आत्मिक सुखदायक अध्यात्म अमृत का पान करते थे। कभी वनों में जाकर आत्म-साधना का अभ्यास करते थे। कभी रानियों को धार्मिक चर्चा द्वारा जिनधर्म का मर्म समझाते थे। इत्यादि रूप में सागरचन्द्र का जीवन बीत रहा था।
सागरचंद्र का वैराग्य उधर पुंडरीकिणी नगरी में भावदेव का जीव सागरचन्द्र भी नानाप्रकार के भोगों को भोगते हुए भी आत्माराधना करता था। एक दिन पुंडरीकिणी नगरी के वन में तीन गुप्ति और तीन ज्ञान के धारक श्री त्रिगुप्ति नाम के मुनिराज पधारे। मुनिराज के आगमन के समाचार नगर में शीघ्र ही फैल गये, समाचार सुनते ही नगरवासियों के साथ सागरचन्द्र भी मुनिवरों की वंदना हेतु वन में पधारे। सभी नगरवासी एवं सागरचन्द्र भी मुनिराज की वंदना करके उनके निकट बैठ गये। सागरचन्द्र मुनिराज की शांत-प्रशांत वीतरागी मुखमुद्रा को एकटक देख रहा था। योगीश्वर द्वारा अतीन्द्रिय आनंददायक धर्मामृत का पान कर, अन्दर ही अन्दर उसका मन मुनिवरों के समान जीवन जीने को प्रेरित करने लगा। तभी अपने पूर्वभवों को जानने की सिनासा होने पर मुनिराज से नम्रतापूर्वक अपने पूर्वभवों के संबंध में उन्होंने पूछा ? ___ अवधिज्ञान से सुभोभित श्री मुनिवर ने उनका सम्पूर्ण वृत्तांत कह सुनाया, उसे सुन सागरचन्द्र का मन संसार की असारता को जान उदासीन हो गया। वह विचारने लगा - "इस संसार में मैं अपने ज्ञान-आनंदादि प्राणों को भूल, जड़ प्राणों को धारण कर जन्म-मरण, जरा-रोग आदि के दुःख भोगता आ रहा हूँ। ये इन्द्रिय-भोग केले के स्तंभ के समान नि:सार हैं और संसार-बेल के मूलभूत हैं। एकमात्र