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जैनधर्म की कहानियाँ रत्न उनके मस्तक पर सूर्य के प्रकाशसम प्रभा को बिखेर रहे हैं। उनके सर्व अंग आभूषणों से शोभित हो रहे हैं। वे अगणित देवांगनाओं के साथ कभी नंदनवन में तो कभी पांडुकवन में क्रीड़ा करते, कभी कल्पवृक्षों की शोभा निहारते तो कभी सुगंधित पवन की बहारों में किलोलें करते थे। इस प्रकार उनकी सात सागर की आयु सात घड़ी के समान बीत गई। वहाँ के भोग विलास में मस्त उन्हें कभी जिनगुण या आत्मध्यान याद ही नहीं आया।
अरे, रे! अब..... अब क्या ? स्वर्ग से वियोग होने का समय आ गया। स्वर्ग-सुखों को छूटता जान अन्दर में मानसिक पीड़ा से खेद-खिन्न होने से उनकी मालायें (यद्यपि मणि रत्नों की होती हैं, अत: उनकी ज्योति मंद नहीं पड़ती, न शरीर कांतिहीन होता है; फिर भी) उन्हें मुरझाई हुई-सी दिखने लगीं। देह कांतिहीन दिखने लगा। स्वर्ग की लक्ष्मी के वियोग के भय से वे देव शोक-मग्न बैठे हैं। अरे! यह पुण्यरूपी छत्र अब मेरे पास से जाता रहेगा। अरे रे! भोगों की दीनता के आधीन देवों का दुःख! मानो सात सागर के दैवी सुखों ने उनसे वैर धारण कर लिया हो।
उन दोनों देवों की इतनी दुखद अवस्था देख उनके संबंधी देवों ने उनका शोक दूर करने हेतु उन्हें सुखप्रद वचनों द्वारा संबोधित किया . “हे धीर! धैर्य धारण करो! सोच करने से क्या लाभ ? संसार में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जिसे जन्म, मरण, जरा, रोग, शोक आदि नहीं आते हों अर्थात् सभी इन दोषों से युक्त होने के कारण दुःखी ही हैं। यह भुवनविदित ही है कि आयु पूर्ण होने पर वर्तमान पर्याय का त्याग होता ही है। इस चतुर्गति के गमनागमन में कोई एक समय न बढ़ा सकता है, न घटा सकता है, न इसे रोक सकता है, क्योंकि प्रकाश सदा अपने प्रतिपक्षी सहित होता है। पुण्य-पाप, सुख-दुःख, हर्ष-शोक, संयोग-वियोग आदि ये कोई भी निरपेक्ष नहीं हैं। इसलिए इस देव पर्याय के छोड़ते समय तुम्हें दुखित होना योग्य नहीं है।
पुण्य के क्षय होने पर अरतिभाव हो जाता है और पाप-आताप के तपने से केवल शरीर ही कांतिहीन नहीं दिखता, बल्कि शरीर को शोभित करने वाले सभी वस्त्राभूषण नि:तेज दिखने लगते हैं।