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जैनधर्म की कहानियाँ अब हम आप सौं आपमें बसके, जग सौं मौन रहेंगे। हम गुपचुप अब निज में निज लख, और कछु न चहेंगे॥३॥ निज आतम में मगन सु होकर, अष्ट कर्म को दहेंगे। निज प्रभुता ही लखते-लखते, शाश्वत प्रभुता लहेंगे॥४॥ अपनी सहजता निरखी निरखी, निज दृग काहे न उमगेंगे। ये जग छुटो, करम भी टूटे, सिद्धशिला पे रहेंगे॥५॥
शल्य रहित होकर मुनिराज ईर्यासमिति पूर्वक गमन करते हुए अपने गुरुवर के निकट वन में गये। जैसे - चिरकाल से समुद्र के आवर्तों में फँसा हुआ जहाज आवर्त से छूटकर अपने स्थान को पहुँचे। गुरुराज को नमस्कार करके भवदेव मुनि ने अपने योग्य स्थान में बैठकर गुरुवर के समक्ष अपना सम्पूर्ण वृत्तांत जो कुछ भी बीता था, सब कछ निश्छल भाव से कह दिया। तथा अन्त में कहा - "हे गुरुवर! मुझे शुद्ध कर अपने चरणों की शरण दीजिए।"
पूज्य गुरुवर ने भवदेव द्वारा निश्छल भाव से कहे गये दोषों को जानकर उसके दंडस्वरूप भवदेव की दीक्षा छेदकर पुन: दीक्षा देकर संयम धारण कराया। दोषों का प्रायश्चित भवदेव मुनिराज ने सहर्ष स्वीकार किया। वे संघस्थ सभी साधुओं को नमस्कार करके, निःशल्य हो, परमपवित्र शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करके कर्मों को जीतनेवाले भावलिंगी संत हो विचारने लगे और विचरने लगे
भवभोगपराङ्मुख हे यते पदमिदं भवहेतु विनाशनम्। भज निजात्मनिमममते पुनस्तव किमध्रुववस्तुनि चिन्तया॥ निज आत्मा में लीन बुद्धिवाले तथा भव और भोग से पराङ्मुख हुए हे यति! तुम भवहेतु का विनाश करनेवाले ऐसे इस (ध्रुव) पद को भजो! अध्रुव वस्तु की चिन्ता से तुम्हें क्या प्रयोजन है ?
समयसारमनाकुलमच्युतं जननमृत्युरुजादिविवर्जितम्। सहजनिर्मलशर्मसुधामयं समरसेन सदा परिपूजये।
जो अनाकुल है, अच्युत है, जन्म-मृत्यु-रोगादि रहित है, सहज निर्मल सुखामृतमय है, उस समयसार को मैं समरस (समताभार) द्वारा सदा पूजता हूँ।