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जैनधर्म की कहानियाँ पुनि पुनि भोगों में जलना क्या?
बिन ज्ञान जिया तो जीना क्या? हे नाथ! ये भोग हलाहल विष समान तत्क्षण प्राणों को हरने वाले हैं और भावि अनंत दुःखों के दाता हैं। अनंत भवों में ये महा हिंसाकारक भोग कितने बार नहीं भोगे, जो आज उन्हीं की पुनः इच्छा करते हो? जरा विचारो! आप तो बारह प्रकार के अव्रत के पूर्ण त्यागी हो, अहिंसा महाव्रत और ब्रह्मचर्य महाव्रत के धारी हो। ऐसा, कौन मूर्ख है जो अमृत को छोड़कर विष की इच्छा करेगा? स्वर्ण को त्यागकर पत्थर को ग्रहण करेगा? ऐसा कौन अधम है जो स्वर्ग व मोक्ष को छोड़कर नरक जायेगा? तथा ऐसी जिनेश्वरी दीक्षा को छोड़कर इन्द्रियों के भोगों की कामना करेगा?"
. इत्यादि अनेक तरह के बोधप्रद वचनों से श्री आर्यिकाजी ने उन्हें संबोधित किया। पुनः आर्यिकाजी भवदेव मुनि की भोगों की भावना को निर्मूल करने हेतु अपने शरीर की दुर्दशा का वर्णन करती हैं - "हे श्रमण! आपने जिस नागवसु के विषय में भोगों की वांछा युक्त भावों से प्रश्न किया, वह नागवसु आपके सामने मैं ही बैठी हूँ। आप देख लो! मैं आपके भोगने योग्य नहीं हूँ। मेरा यह शरीर कृमियों से पूर्ण भरा है। नव द्वारों से मल बह रहा है तथा महा अपवित्र मेरा यह शरीर है। मुख से अपवित्र लार बह रही है। सिर खरबूजे के समान हो गया है। वचन अस्पष्ट एवं लड़खड़ाते हुए निकलते हैं और स्वर भी भयानक निकलता है। दोनों कपोलों में गड्ढे पड़ गये हैं, आँखें कूप के समान भीतर ही भीतर घुस गई हैं। भुजाओं का माँस सूख गया है। सम्पूर्ण शरीर में मात्र चमड़ा और हरियाँ ही दिख रही हैं। अधिक क्या कहूँ? ऐसे कुत्सित शरीर को धरने वाली मैं आपके सामने बैठी हैं। मैं सर्व कामेच्छा से रहित हूँ। श्राविका के व्रतों में मैं मेरु-समान अखल हैं। हे धीर! यह बड़े ही शर्म की बात है और आपका बड़ा दुश्मन है, जो आपने बारंबार मेरा स्मरण करके शल्य सहित इतना का नया ही मैंवाया। धिक्कार है! ऐसी विषयाभिलाधा को! धिकार है ! धिकार है!!