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श्री जम्बूस्वामी चरित्र संयम की संभाल करते हुए योगीराज श्री भावदेवजी इस पृथ्वीतल पर ईर्यासमिति पूर्वक, गुणों के निधान गुरुवर के साथ ही विहार करने लगे। सुख-दुःख के प्रसंगों में समताभावपूर्वक कभी आत्मध्यान, तो कभी स्वाध्याय में रत हो विचरण करने लगे। नि:संगी आत्मा की निःशल्य हो सम्यक् प्रकार से आराधना करने लगे, संतों की अंतर्बाह्य सहज दशा को निम्न प्रकार से कहा जा सकता है।
विषयसुख विरक्ताः शुद्धतत्वानुरक्ता: तपसि निरतचित्ता: शास्त्रसंघातमत्ताः। गुणमणिगणयुक्ताः सर्वसंकल्पमुक्ताः
कथमभृतवधूटीवल्लभा न स्युरेतेः।। जो विषयसुख से विरक्त हैं, शुद्ध तत्त्व में अनुरक्त हैं, तप में लीन जिनका चित्त है, शास्त्रसमूह में जो मत्त हैं, गुणरूपी मणियों के समुदाय से युक्त हैं और सर्व संकल्पों से मुक्त हैं, वे मुक्तिसुन्दरी के वल्लभ क्यों न होंगे? अवश्य ही होंगे। ____ गुणनिधि गुरुवर के उपदेश से निज परम-ब्रह्म भगवान आत्मा को देखकर भावदेव महाराज को अन्दर में ध्रुवधाम ध्येय की धुन लग गई। उस धुन ही धुन में वे उग्र तप तपने लगे। पश्चात् सविकल्प दशा में आकर वे विचारते हैं कि -
स्वाध्यायध्यानमैकाग्रयं ध्यायनिह निरंतरम्।
शब्दब्रह्ममयं तत्वमभ्यसन् विनयानतः॥ ____ मैं धन्य हूँ, कृतार्थ हूँ, भाग्यवान हूँ, अवश्य ही मैं भवसागर से तिरनेवाला हूँ, जो मैंने इस उत्तम जैनधर्म का लाभ प्राप्त किया
अनेक वन, उपवन, पर्वतों में संयम की साधना करते हुए एवं धर्मामृत की वर्षा करते हुए श्री सौधर्माचार्यजी संघ सहित विहार करते-करते कुछ समय बाद वर्धमानपुर (श्री भावदेव मुनिराज के नगर) में पुनः पधारे। स्व-पर के हित में तत्पर, शांत, प्रशांत रस में तल्लीन भावदेव मुनिराज को वहाँ अपने गृहस्थदशा के छोटे भाई भवदेव को संबोधित कर कल्याण मार्ग में लगाने का विचार आया। भवदेव ब्राह्मण उस नगर का प्रसिद्ध ख्याति-प्राप्त व्यक्ति था, परन्तु