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श्री जम्बूस्वामी चरित्र तीर्थंकर भगवंतों के अष्ट प्रातिहार्य भी होते हैं। (१) तीर्थंकर प्रभु को जिस वृक्ष के नीचे केवलज्ञान लक्ष्मी उदित होती है, उस वृक्ष का नाम अशोकवृक्ष है, (श्री वीरप्रभु को जिस वृक्ष के नीचे कैवल्य प्रगट हुआ, उसका नाम लोक में शालवृक्ष होनेपर भी वह अशोकवृक्ष ही कहलाता है)। जो लटकती हुई मोतियों की मालाओं, घंटों के समूहों से रमणीय तथा पल्लवों एवं पुष्पों से झुकी हुई शाखाओं वाला यह अशोकवृक्ष अत्यन्त शोभायमान होता है। इस अशोकवृक्ष को देखकर इन्द्र का भी चित्त अपने उद्यान-वनों में नहीं रमता है। (२) सिर पर तीन छत्र (३) सिंहासन (४) भक्तियुक्त गणों (द्वादश गण) द्वारा वेष्ठित (५) दुन्दुभि वाद्य, (६) पुष्पवृष्टि होना, (७) प्रभामण्डल और (८) देवों के हाथों से झुलाये (ढोरे) गए मृणाल, कुन्दपुष्प, चन्द्रमा एवं शंख जैसे सफेद चौंसठ चामरों से विराजमान जिनेन्द्रभगवान जयवन्त होते हैं। ऐसे मुक्तिपति तीर्थंकरों को मेरा नमस्कार हो।
श्रेणिक को समवशरण के समाचार __ अनेक राजागणों से पूज्य ऐसे महाराजा श्रेणिक अपनी राजसभा में सिंहासन पर आसीन हैं। जैसे सुमेरु पर्वत से बहने वाले झरने सूर्य की किरणों से चमचमाते हैं, वैसे ही राजा श्रेणिक के दोनों ओर दुरनेवाले चमर चमचमा रहे हैं। तथा चंद्रमंडल समान सिर पर छत्र शोभ रहा है।
इसी मंगलमयी बेला में राजगृही नगरी के विपुलाचलपर्वत को महामंगलमयी श्री वीरप्रभु के समवशरण ने पवित्र किया। इन्द्र ने भी प्रमुदित चित्त से द्वादश सभाओं की रत्नमयी रचना कराके अपने को कृतार्थ अनुभव किया। विपुलाचल पर्वत के उद्यानों में छहों ऋतुओं के फलफूल प्रगट होकर मानो प्रभु की पवित्रता का अभिनन्दन कर
तभी वनपाल ने उद्यान में प्रवेश किया, वहाँ कोयल की कूक सुनकर वह आश्चर्यचकित हो गया, वृक्षों की ओर देखते ही उसका विस्मय दुगुना हो गया। बिना ऋतुओं के समस्त फलफूलों को देखकर किसे आश्चर्य नहीं होगा? तब फिर वह पर्वत की ओर देखता