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जैनधर्म की कहानियाँ ६. अशुचि भावना
है ज्ञान देह पावन मेरी, जड़ देह राग के योग्य नहीं। यह तो मलमय मल से उपजी, मल तो सुखदायी कभी नहीं। भो आत्मन्! श्री गुरु ने रागादि को अशुचि अपवित्र कहा। अब इनसे भिन्न परमपावन निज ज्ञानस्वरूप निहार अहा।
७. आसव भावना मिथ्यात्व कषाय योग द्वारा, कर्मों को नित्य बुलाया है। शुभ-अशुभ भाव-क्रिया द्वारा, नित दुख का जाल बिछाया है। पिछले कर्मोदय में जुड़कर, कर्मों को ही छोड़ा बाँधा। ना ज्ञाता-दृष्टा मात्र रहा, अब तक शिवमार्ग नहीं साधा।।
८. संवर भावना मिथ्यात्व अभी सत् श्रद्धा से, व्रत से अविरति समाप्त करूँ। मैं निज में रखें सावधानी, नि:कषाय भाव उद्योत करूँ।। शुभ-अशुभ योग से भिन्न आत्म में निष्कंपित हो जाऊँगा। संवरमय ज्ञायक आश्रय कर, नव कर्म नहीं अपनाऊँगा।
९. निर्जरा भावना नव आम्रव पूर्वक कर्म तजे, इससे बन्धन न नष्ट हुआ। अब कर्मोदय को ना देखें, ज्ञानी से यही विवेक मिला। इच्छा उत्पन्न नहीं होवे, बस कर्म स्वयं झड़ जायेंगे। जब किंचित् नहीं विभाव रहे, गुण स्वयं प्रगट हो जायेंगे।
१०. लोक भावना परिवर्तन पंच अनेक किये, सम्पूर्ण लोक में भ्रमण किया। ना कोई क्षेत्र रहा ऐसा, जिस पर ना हमने जन्म लिया। नरकों स्वर्गों में घूम चुका, अतएव आश सबकी छोईं। लोकाग्र शिखर पर थिर होऊँ, बस निज को निज में ही जोड़ें।