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जैनधर्म की कहानियाँ (३) शीत परीषहजय
शीतकाल में जब तीर के समान तीक्ष्ण झंझा वायु चलती है; जिससे वृक्ष भी काँपने लगते हैं, वर्षा ऋतु में मूसलाधार वर्षा,
ओले आदि बरसते हैं; सरोवरों के तटों पर, वृक्ष के नीचे, वन-जंगलादि में अति शीत की बाधा के प्रसंग बनते हैं; पर श्रीगुरु अपनी आराधना में अचल रहते हैं। ऐसे तारण तरण मुनिराज संसार से स्वयं तरते हैं और दूसरों को भी तारते हैं। (४) उष्ण परीषहजय
भूख, प्यास से पेट में जलन पड़ती हो, आँतें एवं शरीर अग्नि से जल गया हो, पर्वत की चोटी पर गर्म शिलादि हों, तीक्ष्ण लू लगने से दाह ज्वर आदि हो गया हो; फिर भी मुनीश्वर आत्मिक शांति में ही लीन रहते हैं अर्थात् अपनी धीरता को कभी नहीं छोड़ते। (५) दंशमशक परीषहजय
वन-जंगल में सिंह, बाघ, रीछ, रोझ, बिच्छू, सर्प, कनखजूरे, दुष्ट वनचर पशु-पक्षी, डांस, मच्छर आदि द्वारा की गई भयंकर वेदनाओं में भी योगीराज समभाव से जय प्राप्त करते हैं। ऐसे स्व-पर के पापों को हरने वाले मुनीश्वर को मेरा नमस्कार हो। (६) नग्न परीषहजय
दीन, हीन, विषयानुरागी, संसारी प्राणी अन्दर में विषय-वासना होने से एवं बाहर लोक-लज्जा के कारण नग्न नहीं हो सकते हैं; परन्तु महा ब्रह्मचारी यतीश्वर अन्तर-बाहर जन्मे हुए बालकवत् निर्विकारी होने से अपने स्वरूप में अर्थात् निर्ग्रन्थ स्वरूप में ही रहते है, उनके चरणों में मेरा नमस्कार हो। (७) अरति परीषहजय
देश, काल का प्रतिकूल वातावरण हो, कलह, नगर-विनास, जंगल में अग्नि आदि लग का जाने से, बम आदि गिरने से अर्थात् अनेक प्रकार के प्रतिकूल वातावरण के प्रसंग उपस्थित होने से जगजन आकुल-व्याकुल होकर तड़फने लगते हैं, परन्तु परम तपोधन अपनी स्वाभाविक धीरता को कभी नहीं छोड़ते। ऐसे साधु महाराज हमारे हृदय में निरंतर बसो।