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श्री जम्बूस्वामी चरित्र इन्द्रों द्वारा सिद्ध भक्ति-पूजन अशरीरी सिद्ध भगवान, आदर्श तुम्हीं मेरे। अविरुद्ध शुद्ध चिद्घन, उत्कर्ष तुम्हीं मेरे॥टेक॥ सम्यक्त्व सुदर्शन ज्ञान, अगुरुलघु अवगाहन। सूक्ष्मत्व वीर्य गुणखान, निर्बाधित सुख-वेदन। हे गुण अनन्त के धाम, वन्दन अगणित मेरे ॥१॥ रागादि रहित निर्मल, जन्मादि रहित अविकल। कुल-गोत्र रहित निश्कुल, मायादि रहित निश्छल॥ रहते निज में निश्चल, निष्कर्म साध्य मेरे ॥२॥ रागादि रहित उपयोग, ज्ञायक प्रतिभासी हो। स्वाश्रित शाश्वत सुखभोग, शुद्धात्म विलासी हो। हे स्वयं सिद्ध भगवान, तुम साध्य बनो मेरे॥३॥ भविजन तुम-सम निजरूप, ध्याकर तुम सम होते। चैतन्य पिण्ड शिवभूप, होकर सब दुःख खोते।
चैतन्यराज सुखखान, दुःख दूर करो मेरे ॥४॥ इसप्रकार सभी ने अनुपम अष्ट द्रव्यों से पूजन एवं भक्ति की, उसके बाद सभी अपने अपने स्थान चले गये। ___ ध्यान ज्ञान में लवलीन श्री अर्हद्दास मुनिवर भी समाधिमरणपूर्वक देह का त्यागकर छठे देवलोक को पधारे और श्री जिनमी आर्यिकाजी ने भी उग्र आराधना के बल से स्त्रीलिंग का छेदन किया और समाधिपूर्वक मरण कर उन्होंने भी छठे ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में इन्द्र पद प्राप्त किया तथा चारों वधुयें जो आर्यिका हुई थीं, उन्होंने भी चंपापुरी जाकर श्री वासुपूज्य भगवान के जिनालय में समाधिपूर्वक देह का त्यागकर, स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्ग में अहमिन्द्र' पद प्राप्त किया।
१. राजमलजी कृत श्री जम्बूस्वामी चरित्र में लिखा है कि स्वर्ग में देवी हुई और भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित श्री जम्बूस्वामिचरित्र पृष्ठ २१६ में लिखा है। कि अहमिन्द्र हुई।