________________
१६४
जैनधर्म की कहानियाँ हुए अन्य वृद्ध, रोगी आदि साधुओं को उठाना-बैठाना, धर्मोपदेश देना, हाथ-पैर दबाना आदि क्रिया को वैयावृत्य तप कहते हैं।
(१०) स्वाध्याय :- स्व अर्थात् आत्मा के हित के लिए अध्ययन करने को स्वाध्याय कहते हैं अथवा सुष्ठ रीति से पूर्वापर विरोध रहित शास्त्रों का अध्ययन करना स्वाध्याय है। यह तप परनिन्दा से निरपेक्ष होता है। राग-द्वेष का नाशक, तत्त्व का निर्णय कराने वाला एवं ध्यान की सिद्धि का कारण होता है। अपनी आत्मा को अपवित्र शरीरादि से भिन्न एक ज्ञायक स्वरूप जानना ही सब शास्त्रों को जानना है। यही स्वाध्याय तप है।
(११) व्युत्सर्ग अथवा कायोत्सर्ग :- काय अर्थात् शरीर के उत्सर्ग अर्थात् ममत्व त्याग को कायोत्सर्ग कहते हैं। चौबीस प्रकार के परिग्रह को त्यागकर शरीर में असह्य वेदना आ जाने पर भी इलाज नहीं इच्छते। पसीना आदि के निमित्त से धूल आदि का चिपकना और मुँह, नाक आदि के मल को धोने आदि शारीरिक संस्कार से उदासीनता रखते हैं। भोजन, शय्या आदि में निरपेक्ष भाव है और आत्मस्वरूप में लीन रहते हैं। शत्रु-मित्र में, कांच-कंचन में, महल-मशान में साम्यभाव के धारी वीतरागी संत कायोत्सर्ग तप में संलग्न रहते हैं और प्रायोपगमन समाधिमरण की साधना कर निश्चल खड़े हो कायोत्सर्ग करते हैं। यही व्युत्सर्ग अथवा कायोत्सर्ग तप
(१२) ध्यान :- धर्म से युक्त ध्यान को धर्मध्यान कहते हैं। मोह-क्षोभ से रहित निज चैतन्य स्वरूप में निश्चल अत्यंत निर्विकार परिणति का होना ध्यान तप है। ऐसे धर्म-शुक्लध्यान को श्री मुनिराज ध्याते हैं।
इसतरह से इन बारह प्रकार के तपों में प्रथम अनशन तप से लेकर अंतिम ध्यान तप तक उत्तरोत्तर इच्छाओं का विशेष-विशेष निरोध होता जाता है और आत्मलीनता बढ़ती जाती है।
इस तरह द्वादश तपों से युक्त जम्बूस्वामी तपोधन अब द्वादशांग जिरवाणी के ज्ञाता हो गये हैं।