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श्री जम्बूस्वामी चरित्र
१५७ प्रसिद्ध हो गया। यही हालत उसके ५०० राजकुमार मित्रों की भी हुई थी, जो कि चौर्यकला में कुशलता प्राप्त करने के लिये चोरी करने लगे थे।
जम्बूकुमार एवं रानियों की चर्चा से प्रतिबोध को प्राप्त हो विद्युच्चर ने यह निर्णय किया कि जो गति जम्बूकुमार की होगी, वही मेरी होगी। श्री जम्बूकुमार के वैराग्य को देखकर विधुच्चर चोर ने अपने ५०० चोर मित्रों सहित मिथ्यात्व एवं पंच-पापों को त्यागकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर जिनशासन की शरण अंगीकार कर ली।
[पाठकगण! आपको जम्बूकुमार का एक रात्रि के लिए विवाह करना एवं राजकुमारों का चौर्यकर्म देखकर बड़ा आश्चर्य होता होगा; - क्योंकि राग से विराग की ओर जाना, चौर्यभाव से मुनिदशा की ओर एकदम परिर्वतन होना, हम पुरुषार्थहीनों को आश्चर्यचकित कर देने के लिए काफी ही है, लेकिन यह कोई अनहोनी बात नहीं है। जब अन्तमुहूर्त पहले का मिथ्यादृष्टि अन्तर्मुहूर्त बाद सिद्ध भगवान बन सकता है, तब फिर इन्हें तो पलटने के लिए बहुत समय मिल गया।
अनंत सामर्थ्य की मूर्ति यह भगवान आत्मा जब अपना पौरुष स्फुरायमान करता है, तब वह अन्तर्मुहर्त में कषायें एवं कर्मों को तोड़कर अशरीरी सिद्ध परमात्मा बन जाता है। बस, इसके साथ शर्त इतनी अवश्य है कि वह पहले से द्रव्यलिंग ग्रहण किए हुए होना चाहिए। जिसप्रकार कोटि वर्ष का स्वप्न भी जागृत होते ही शांत हो जाता है। उसीप्रकार अनादि के विभाव का शमन होने में देर नहीं लगती।]
जम्बूकुमार के परिवार की दीक्षा ___ जैसे मोती समुद्र के तल में रहने वाली सीप में ही बनते हैं, गजमुक्ता गजराज के मस्तक में ही पैदा होते हैं, वैसे ही चरमशरीरी जीव का अवतार पात्र जीवों की कुक्षी से ही होता है। श्रेष्ठी अर्हद्दास एवं जिनमती दोनों ही अति पात्र आत्मायें हैं। उन्होंने भी संसार, देह भोगों से उदास होकर वैराम्यवर्धनी बारह भावनाओं का चिंतन किया और पूज्यवर श्री सुधर्माचार्य गुरुवर से भव-ताप-नाशिनी कर्म-क्षय-दायिनी