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श्री जम्बूस्वामी चरित्र
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हैं। शरीर की सुन्दरता के कारणभूत वस्त्रों को भी ऐसे उतार फेंका, मानो चतुर पुरुष ने माया की अनेक परतों को ही फेंक दिया हो । मणियों से वेष्टित कमर की करधनी को इस तरह तोड़ डाला, मानो संसार के वैरागी ने संसार का दृढ़ बंधन ही तोड़ डाला हो । फिर कानों के दोनों कुंडलों को ऐसे निकाल दिये, मानो संसार रूपी रथ के दोनों पहियों को ही तोड़ डाला ।
फिर स्वामी ने अपने ही दोनों हाथों से शास्त्रोक्त विधि अनुसार लीलामात्र में पंच- मुष्टि से अपने केशों का लोच किया। उसी समय "ॐ नमः सिद्धेभ्यः” मंत्र का उच्चारण करके पूज्य श्रीगुरु की आज्ञा से क्रम से शुद्ध अट्ठाईस मूलगुणों को ग्रहण करते हुए परम दिगम्बर दशा को प्राप्त किया।
वास्तव में तो आत्मिक आनंद में अभिवृद्धिरूप प्रचुर स्वसंवेदनरूप एक ही मुलगुण है। जो मूलरूप एवं हितरूप हो, उसे मूलगुण अथवा मुख्य गुण कहते हैं। अकषाय परिणति के साथ कुछ कषायांश जीवित है, इसलिए शांति के सरोवर में से बाहर आने पर इसप्रकार का शुभ भाव आता है। उसके अट्ठाईस भेद (या चौरासी लाख उत्तर भेद) पड़ जाते हैं, जिन्हें मुनिराज के २८ मूलगुणों के रूप में कहा जाता है। वे इसप्रकार हैं :
मुनियों के २८ मूलगुण
(१-५) पाँच महाव्रत
( १ ) अहिंसा महाव्रत :- जो त्रस - स्थावर जीवों की सभी प्रकार की हिंसा सम्बन्धी अव्रत के त्यागरूप होता है अर्थात् प्रयत्नपरायण को हिंसा परिणाम का अभाव होने से अहिंसा महाव्रत होता है। परमार्थ से तीन कषाय चौकड़ी के अभाव रूप परम शांति के वेदन स्वरूप अहिंसा भाव प्रगट होने से निश्चय अहिंसा महाव्रत है ।
(२) सत्य महाव्रत :- अशब्द स्वभावी आत्मा का आश्रय लिया होने से जो स्थूल एवं सूक्ष्म किसी भी प्रकार झूठ नहीं बोलते, बल्कि झूठ बोलने का विकल्प भी नहीं आता ऐसे आसन्नभव्य जीव को यह सत्य महाव्रत होता है।
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