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श्री जम्बूस्वामी चरित्र
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जीवों की यह जड़मय देह रोगों से ग्रसित है, समस्त अशुचिता की खान है, कागज की झोपड़ी के समान क्षण में उड़ जानेवाली होने से अनित्य है और प्रतिसमय मृत्यु के सन्मुख अग्रसर है, परन्तु महापुरुषों का ज्ञानानंदमयी विग्रह ( देह ) होने से शाश्वत एवं अक्षय है, समस्त पवित्रताओं से निर्मित है, चैतन्यमयी गुणों का निकेतन है, उसकी उपासना जो भव्योत्तम करते हैं, वे अल्पकाल में गुणनिधान अशरीरी सिद्धत्वपने को प्राप्त होते हैं।
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पंचम परम पारिणामिक भाव को भजकर, पंचपरमेष्ठी का स्मरण करके, पंचेन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके, पंच परावर्तन का अभाव करके, पंचमगति को प्राप्त श्री जम्बूस्वामी का यह उत्तम चरित्र है इस उत्तम कथा के सुनने से या पढ़ने से मनुष्यों को जो सुख उत्पन्न होता है, वही बुद्धिमान मनुष्यों का स्वार्थ आत्मप्रयोजन है तथा यही सातिशय पुण्य उपार्जन का कारण है। श्री वर्धमान जिनेन्द्र की दिव्यध्वनि में आया हुआ, श्री इन्द्रभूति गौतम गणधर के द्वारा प्रतिपादित किया गया तथा सुधर्माचार्य आदि आचार्य परम्परा से चला आया यह चरित्र है। इसे ही आगम के आधार से पांडे श्री राजमलजी ने संस्कृत पद्य में रचा, उसका हिन्दी अनुवाद ब्र. शीतलप्रसादजी कृत है, उसी के आधार से प्रस्तुत चरित्र रचा जा रहा है।
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[ अपने कथानायक श्री जम्बूस्वामी का भूतकाल यहीं से प्रारंभ होता है। इसे पढ़ते ही हम यह महसूस करेंगे कि धर्मात्माओं के साथ धर्म की शीतल छाया में पनपने वाला पुण्य भी अपनी छटा बिखेरता ही रहता है, क्योंकि पुण्य और पवित्रता का अपूर्व संगम स्थान धर्मात्मा ही हुआ करते हैं। जिस प्रकार युद्धक्षेत्र में लक्ष्मण को शक्ति लग जाने से वे निस्चेत हो गये थे, उस समय विशल्या के प्रवेश होते ही मूर्छा आदि संकटों ने अस्ताचल की राह ग्रहण कर ली थी। उसी प्रकार भावी धर्मात्माओं के अवतरित होने के पहले ही पाप एवं दुःख-दारिद्र्य भी अस्ताचल की ओर गमन करने लग जाते हैं। चलिये, हम उस नगरी एवं नगरवासियों के पुण्य की छटा का अवलोकन करें ।]