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॥ श्री वीतरागाय नमः ॥
॥ श्री जम्बूस्वामी चरित्र ॥ चिदानंद चैतन्यमय, शुद्धातम को ध्याय।
जम्बूस्वामी केवली, अन्तिम को सिरनाय॥ रचूँ कथानक जो कहयो, गुरु गौतम जिनराय।
जम्बूस्वामी चरित को, सुनो भव्य मन लाय॥ जिनका प्रत्यक्ष ज्ञानरूपी किरणों का मण्डल त्रिभुवनरूप भवन में फैला हआ है, जो नौ केवल-लब्धि आदि अनंत गणों के साथ आरंभ हुए दिव्यदेह के धारी हैं, जो अजर हैं, अमर हैं, अयोनि-सम्भव हैं, अदग्ध हैं, अछेद्य हैं, अव्यक्त हैं, निरंजन हैं, निरामय हैं, अनवद्य हैं, जो तोष गुण (राग) से रहित होकर भी सेवकजनों के लिये कल्पवृक्ष के समान हैं, जिनने साध्य की सिद्धि कर ली है, संसार-सागर से जो उत्तीर्ण हुए हैं, जिनने जीतने योग्य सभी को जीत लिया होने से जितजेय हैं, जिनके हाथ-पैर आदि अर्थात् पूर्णत: सुखामृत में जो डूबे हुए हैं, जिनके वचन-किरणों से मोक्षमार्ग मुखरित हो रहा है, जो अठारह हजार शीत के गुणों के स्वामी होने से शैलेशीनाथ हैं, जो अक्षय गुणनिधि हैं - ऐसे श्री वीर प्रभु को एवं समस्त पंच परमेष्ठी भगवंतों को नमस्कार करके पूर्वाचार्यों के अनुसार इस हुण्डावसर्पिणी काल के अंतिम अनुबद्ध केवली श्री जम्बूस्वामी के पावन चरित्र को मैं कहूँगा।
जिनका देह कामदेव के रूप से सुशोभित है, जिनका वक्षःस्थल पद्मा अर्थात् लक्ष्मी से युक्त है, प्रफुल्लित कमल के समान जिनका मुख है, विशाल एवं गंभीर नेत्रों से जो शोभित हैं, असाधारण
श्री जम्बूस्वामी चरित्र