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जैनधर्म की कहानियाँ नहीं हुआ हूँ। लेकिन अब मेरा मन आत्मा के अतीन्द्रिय आनंद का प्रचुर स्वसंवेदन करने के लिये, आत्मा का निरन्तराय एवं निराबाध भोग करने के लिये तथा वन-खण्डादि में जाने के लिये तड़फ उठा है। जिसे आत्मा ही सुखरूप-आनंदमयी भासित हो रहा हो, जो सदा उसमें ही मग्न रहना चाहता हो, उसे द्वेषरूप उदासीनता नहीं
पुन: विनयश्री बोली - "हे नीतिज्ञ नाथ! क्षमा करें, इस अल्प वय में इसप्रकार भोगों को छोड़कर जाने में तो आपकी भावुकता भासित होती है, परन्तु भावुकता में जितने जल्दी जीव का उत्कर्ष होता है, उससे भी कहीं जल्दी पतन हो जाता है। इसलिये हे स्वामिन् ! आप धर्मज्ञ हो, मैं आपको क्या नीति सिखा सकती हूँ? आप मुझे क्षमा करें। हे नाथ! यह जिनशासन परम पवित्र है, निष्कलंक है, इससे अनन्ते जीव तिरे हैं। यदि हमारी भावुकता या जल्दबाजी के कारण हमारे आचरण में किंचित् भी शिथिलता या मलिनता हुई तो यह परम पवित्र जिनशासन कलंकित हो जायेगा। नाथ! क्या पवित्र जिनशासन को कलंकित करने में अपनी शोभा है? नहीं, नहीं, कदापि नहीं नाथ! अत: आप हमारी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए हम पर अनुग्रह कीजिए।"
तब कुमार बोले - "हे गंभीर चित्ते! आगम का यश धरनहारी! तुम्हारे गंभीरतापूर्ण विचार प्रशंसनीय हैं। आगम तथा जिनशासन की पावन मर्यादाओं के उल्लंघन का भय जो तुम्हें है सो समुचित ही है, परन्तु भावुकता की क्या पहचान है ? जिनके पास सचमुच आत्म-प्रतीति है, दृढ़ तत्त्व-श्रद्धान है और जिनशासन का परम विश्वास है, उनके जीवन में शिथिलता नहीं होती। जिनका चित्त स्वभाव में अत्यन्त सावधान है तथा विभावों का अत्यन्त भय है और स्वरूप में जिनकी बुद्धि अत्यन्त निमग्न है, सचमुच वे भावुक नहीं होते हैं। ध्यान रखो, भावुकता का संबंध देह अथवा उम्र से है ही नहीं। एक आठ वर्ष का बालक यदि आत्मानुभवी है, आत्म-प्रतीतिवंत है, आत्मज्ञानी है तो वह भी गंभीर है, दूसरी ओर साठ वर्ष का व्यक्ति यदि आत्मज्ञानी-तत्त्वज्ञानी नहीं है तो वह भी भावुक है। मेरे पास दृढ़ आत्मश्रद्धान है, रत्नत्रय की शोभा है, अत: किंचित् भी भावुकता