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________________ ११४ जैनधर्म की कहानियाँ भले ही अपरिचित एवं असाध्य कार्य लगे, परन्तु मैं तो पूर्व दो भवों से जिनदीक्षा धारण करके आत्मा के प्रचुर स्वसंवेदन का अर्थात् आत्मिक अतीन्द्रिय आनंद का रसपान करता आ रहा हूँ, अत: मेरे लिए यह कोई नया कार्य या असाध्य कार्य नहीं है। इसलिए कुमार ने पिता को मधुर स्वरों से संबोधित किया - "हे पिताजी! बाह्य वस्तुएँ सुख-दुःख की कारण नहीं होती। आत्मिक अतीन्द्रिय आनंद में रमने वालों को क्या उपसर्ग और क्या परीषह? इसलिए हे तात! आप मोह छोड़कर मेरे वीतरागी मार्ग की अनुमोदना कीजिए और मुझे आज्ञा दीजिए।" __ कुमार को दृढ़ जानकर श्री अर्हदास सेठ ने अपने मन को शांत किया और एक चतुर सेवक को एकांत में बुलाकर कहा - “तुम शीघ्र ही जाकर सागरदत्त आदि श्रेष्ठियों को यह समाचार दो कि जम्बूकुमार संसार से विरक्त हो जाने के कारण जिनदीक्षा लेने को तैयार हैं।" सेठ अर्हद्दास के मुख से ऐसे हृदय-विदारक समाचार को सुनकर सेवक उदास हो गया - "अरे रे! ऐसा समाचार मुझे देना पड़ेगा? मैं कैसे कहँगा? अरे, धिक्कार है ऐसी पराधीनता को!" सेवक घबड़ाये हुए चित्त से जा रहा है। उसके पैर भी लड़खड़ाते हुए पड़ रहे हैं। वह व्यथित होता हुआ सागरदत्त श्रेष्ठी के सन्मुख जाकर नीचा मुख करके निःचेष्ट खड़ा हो गया। श्रेष्ठी उसके वहाँ आने का कारण पूछ रहे हैं। मगर उसके मुख से कुछ भी शब्द नहीं निकल पा रहे हैं। वह तो दुःख के सागर में डूब गया है। सागरदत्त उससे पुन: पुन: पूछते हैं। तब यह खेद-खिन्नता के साथ कुछ धीरे-धीरे दबे स्वर में बोलता है - "अरे रे! आप जैसे सजनों का समागम बड़े भाग्य से मिला था, परन्तु रे दैव! तुझे मंजूर नहीं हुआ। हमारा बड़ा दुर्भाग्य है कि अकस्मात् ऐसे शुभ कार्य में विघ्न आ पड़ा।" सागरदत्त - "अरे सेवक! ये क्या कह रहे हो? कैसा दुर्भाग्य और कैसा विघ्न ? बोलो, शीघ्र बोलो! हम तुम्हारे गूढ़ रहस्य युक्त वचनों को कुछ नहीं समझ पा रहे हैं।"
SR No.009700
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimla Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year1995
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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