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जैनधर्म की कहानियाँ
देते हैए कहा - “यही राजा मृगांक हैं, जो आपको अपनी कन्या देना चाहते हैं। यह पटरानी मालतीलता हैं। तथा ये विद्याधरों में मुख्य राजा रत्नचूल हैं, जो बड़े-बड़े योद्धाओं से अजेय थे, मगर आपके कुमार ने इनको भी जीत लिया। यह हमारा विद्याधर परिवार
व्योमगति के वचन सुनकर राजा श्रेणिक का आनंद उसी तरह वृद्धिंगत होने लगा, जैसे चन्द्रमा के उदय से समुद्र बढ़ने लगता है। श्रेणिक राजा भी बारंबार कुमार की प्रशंसा करने लगे, सो उचित ही है, क्योंकि सज्जन पुरुष उपकारकों का उपकार कभी नहीं भूलते।
महाराज श्रेणिक, सम्पूर्ण सेनादल तथा विद्याधर राजाओं का समूह सभी जम्बूकुमार के हृदयोद्गार सुनना चाहते थे; एन्तु कुंमार मौन हो कोई अलौकिक दुनिया में विचरण कर रहे थे। अनेकों बार अनेकों व्यक्तियों ने निवेदन किया - "हे धीर-वीर कुमार! हे क्षत्रिय-वंश-तिलक! हे वात्सल्यमूर्ति! हे दयानिधान! हम आपके ही मुख से जीत के समाचार सुनना चाहते हैं।" परन्तु -
ज्ञानी डुब्यो शरम में, करे न कोई सों बात। जब कोई बातें छेड़ दे, तो मंद-मंद मुस्कात॥ मंद-मंद मुस्कात, फिर धीरे से कुछ बोलें
अपनी पावन वाणी में, अध्यातम की मिश्री घोले॥ पश्चात् राजा मृगांक ने उचित समय जानकर, अनेक प्रकार के रत्नादि द्रव्यों की भेंट समर्पित करते हुए राजा श्रेणिक से अपनी कन्या विशालवती के साथ पाणिग्रहण करने का निवेदन किया। महाराज श्रेणिक मृगांक की बात सुनकर मुस्कुराने लगे। यही उनकी स्वीकृति का प्रतीक था। मृगांक राजा ने सभीप्रकार की साज-सज्जा के साथ लग्न-मंडप तैयार कराया। सभी विद्याधरों ने बड़े हर्ष के साथ श्रेणिक नृप के साथ विशालवती का पाणिग्रहण सम्पन्न कराया। चारों तरफ नारियाँ मंगल गीत गा रही थीं। विवाहोत्सव सोल्लास समाप्त हुआ।
तदुपरांत राजा श्रेणिक ने मृगांक राजा एवं रत्नचूल राजा का मैत्रीभाव कराया और फिर सभी आगंतुक मेहमानों को यथोचित सन्मान करके बिदा किया। सभी जन लौट आये। व्योमगति विद्याधर भी