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________________ [ १०४ 1 हाथों में पुष्पमाला धारी हैं, बाकी के हाथ सबके ऊँचे मस्तक के पास हैं। कवाणी के दूसरे Era में अर्थात् बायें ओर भी इसी प्रकार की मूर्तियाँ हैं परन्तु उसका ( नीचे से ) पहिला पुरुष लंबी दाढ़ी धारण किये हुए है। तीथंकरों के आले ( गवाक्ष ) के दूसरी तरफ में जो प्रास हैं वे बाह्य भाग में है और उनके मुख से निकलते हुए दो पुरुष दोनों ओर दिखाये हैं जिनके एक पैर का कुछ अंश मुख के अन्दर है । परिकर का परिचय करा देने के पश्चात् अब मध्यवर्ती मूल प्रतिमा का परिचय दिया जाता है। इस सर्वाग सुन्दर सरस्वती मूर्ति के अंगविन्यास को देखकर हृदय नाचने लग जाता है। राजस्थान के जिस वास्तु-शिल्पी ने अपनी यह आदर्श साधना जनता को दी, वह अपना अज्ञात नाम सदा के लिये अमर कर गया। भगवती के लावण्य भरे मुखमण्डल पर गम्भीर, शान्त और स्थिर भाव विराजते हैं नेत्रों की सौम्य दृष्टि बड़ी ही भली मालूम देती है । लगता है कि जैसे नेत्रामृत वृष्टि से समस्त जगत् का अज्ञानान्धकार दूर कर हृदय में ज्ञान ज्योति प्रकट कर रही हो। कानों के ऊपरी भाग में मणि मुक्ता की ४-४ लड़ी विराजित भँवरिया पहना हुआ है, दाहिने कान का यह आभूषण खंडित हो गया है। निम्न भाग में गुड़दे से पहिने हुए हैं जिनकी निर्माणशैली गुड़दे से कुछ भिन्न प्रतीत होती है। पर जटाजूट सा दिखलाकर उस पर सुन्दर किरीट सुशोभित किया गया है। तरफ चली गई है जिसकी सूक्ष्म प्रत्थी वाली डोरी एवं चोटी के ऊपर नीचे, फुन्दे से दिखाये गये हैं। सरस्वती के सुन्दर और तीखे नाक पर कांटे, नाथ या किसी अन्य आभूषण का अभाव हैं जिससे ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में आर्यावर्त में इसकी प्रथा नहीं थी । गलेके सल बड़े सुहावने मालूम होते हैं गले में पहनी हुई हँसली और उसके नीचे झालरा या आड़ पहना हुआ है जिसके लम्बे-लम्बे लटकने हँसली के नीचे फिट हैं, दोनों कन्धों तक गया है। इसके बाद पहना हुआ ३ थेगड़ों वाला सांकल का हार सीबीसांकल से मिलता जुलता है जो उभय पुष्ट और उन्नत पयोधरों के ऊपर से होकर उदर तक' आगया है । एक आभूषण न मालूम क्या है जो उभय स्तनों के मध्य से होकर आया है और उसके अन्दर से निकली हुई दो लडें स्तनों के नीचे से होकर पृष्ट भाग में चली गई हैं और तीनलड़ा डिजाइनदार सीबीसकिल तक आकर उसमें से निकला हुआ आभूषण कटिमेखला तक आगया है जो शरीर से १ इंच दूर है और खण्डित न हो, इसलिये मध्यवर्ती प्रस्तर खण्ड को संलग्न रहने दिया गया है। उदर, नाभि सरस्वती के ४ हाथ और कमर का लचीला और सुन्दर विन्यास बड़ा ही प्रेक्षणीय हुआ है। हैं सामने वाले हाथों की भुजाओं में तिलड़े, मध्य में त्रिकोण भुजबन्ध के नीचे पहिना हुआ आभरण बड़ा सुभग मालूम होता है । गोल बड़े-बड़े मणियों के बीच पिरोये हुए वृत्त और लटकते हुए जेवर आजकल के झालरदार आर्मलेट को स्मरण कराये बिना नहीं रहते। इसके नीचे उभय हाथों में पीछे से आई हुई वैजयन्ती या तूर्णालंकार ठेट गोडों के नीचे तक चला गया है। हाथों में सांकल में लटकता गूघरा दिखाया है। कलाई में पहनी हुई चूड़ आजकल देखा "Aho Shrut Gyanam" केशपाशों को संवार कर मस्तक चोटी, पीछे बायें
SR No.009684
Book TitleBikaner Jain Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size22 MB
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