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________________ [ १०० ] श्री सुसाणी माताका मन्दिर, मोरखाणा बीकानेर से लगभग १२ कोश व देशनोक से १२ मील दक्षिण-पूर्वकी ओर मोरखाणा नामक प्राचीन स्थान है। यहाँ सुराणोंकी कुलदेवी सुसाणी माताका मन्दिर पर्याप्त प्रसिद्ध है। यहाँके अभिलेखों से विदित होता है कि विक्रम की बारहवीं शतीमें सुसाणी माताका मन्दिर विद्यमान था और दूर-दूरसे यात्री लोग यहां आकर मान्यता करते थे। सं० १५७३ में संघपति शिवराज द्वारा अपनी सम्यग्दृष्टि गोत्र देवीके उत्तुंग शिखरी देव विमान सदृश मन्दिर बनवाने का उल्लेख मन्दिर में लगे हुए श्याम पाषाण की पट्टिका पर उत्कीणित लेखमें पाया जाता है। किन्तु मन्दिर का दूसरा लेख सं० १२२६ का है जो सेहलाकोट से आई हुई भोईलाहिणी के यावज्जीव सुसाणीदेवीको आराधन करने का उल्लेख है । अतः उपर्युक्त उल्लेख मन्दिरके जीर्णोद्धार या पुनर्निर्माण का होना सम्भव है। इसकी प्रतिष्ठा (धर्मघोष गच्छनायक ) जैनाचार्य श्री पद्मानन्दसूरिके पट्टधर भ० श्री नंदिवर्द्धनसूरिके करकमलों से हुई थी। सन् १९१६ में डा० एल० पी० टैसीटरी साहब ने मोरखाणा स्थान का निरीक्षण किया और वहाँके प्राचीन शिलालेखों की छा संग्रहीत की थी। उन्होंने सन् १९१७ के एसियाटिक सोसाइटी के जर्नल में यहांके कतिपय अभिलेख तथा ससाणी माताकेमन्दिरका परिचय प्रकाशित किया था जिससे तत्सम्बन्धी कई बातोंकी जानकारी प्राप्त होती है । सीटरी साहब की मोरखाणा की फाइल में हमने एक लेख कुटिललिपि का भी देखा था संभवतः वह गोवर्द्धन का लेख होगा। मोरखाणा में मन्दिर व कुएं के आस-पास बीसों सती जूभारादि की देवलिए विद्यमान हैं जिनके लेख सिन्दूरादि की तह जम जानेसे अस्पष्ट हो चुके । यहाँकी एक बच्छावतों की सतीका लेख हमने लेखांक २६०१ में प्रकाशित किया है, जिसके अतिरिक्त सभी देवलिऐं जैनेतर-राजपूत जातिकी होनी चाहिए । माताजी का मन्दिर ऊंचा, सुन्दर और जेसलमेरी पत्थर द्वारा निर्मित है। इसके घटपल्लव तथा श्रीधर शैलीके रतंभ एवं प्रवेशद्वारकी कोरणी चूना पुताई होनेसे अवरुद्ध हो गई है। यही हाल मन्दिर की दीवाल पर उत्कीर्णित नर्तकियों और देवी देवताओं की मूर्तियों का है। सुसाणी माताके सम्बन्ध में एक प्रचलित प्रवाद को डा० टैसीटरी साहब ने भी प्रकाशित किया है कि ससाणी नागौर के सुराणों की लड़की थी जिसके सौन्दर्य से मुग्ध नबाब द्वारा पितासे याचना करने पर वंश व शील रक्षार्थ सुसाणी घरसे निकल भागी और मोरखाणा पहुंचने पर पीछा करते हुए नबाब के सेना सहित बिलकुल निकट पहुंच जाने पर उसने पृथ्वी माताकी शरण ली। हम नहीं कह सकते कि यह बात कहां तक ठीक है, क्योंकि पृथ्वीराज चौहानके समय के तो सुसाणी माताके अभिलेख प्राप्त होते हैं, इससे पूर्व यहां मुसलमानों का राज्य कतई नहीं था। हां! सिन्धमें मुसलमानों का शासन इस समय कहीं-कहीं हो गया था। कहा जाता है कि सुसाणी की सगाई दूगड़ों के यहां हो चुकी थी अतः सुराणा और दूगड़ दोनों गोत्रों वाले सुसाणी माताको साविशेष मानते हैं। सुसाणी माताके चमत्कार प्रत्यक्ष हैं। उनके वंशज गोत्रवाले आसोज और चैत्रकी नवरात्रि में वहां जाते हैं और मेला सा लग जाता है। बीकानेर शहर के बाहर सुराणों की बगीचीमें भी सुसाणी देवीका मन्दिर है जिसका लेख इसी ग्रन्थमें प्रकाशित है। लौंका गच्छको पट्टावली से ज्ञात होता है कि धर्मघोषसूरिने धारानगरी के पमारों को प्रतिबोध देकर सूरवंश की स्थापना की थी। उन्हींक वंश घि देकर सरवंश की स्थापना की थी। उन्हीके वंशज नागौर आकर बसे, जहां उनके वंश का खूब विस्तार हुआ। सं० १२१२ में संघपति सतीदास के यहाँ सुसाणी माता हुई। सं० १२२६ में नागोर से मोरखाणा जाकर अन्तर्हित हो सं० १२३२ में माताजी के रूपमें प्रकट हुई। माताजी ने सूरवंशी मोलाको स्वप्न में दर्शन दिया उसने देवालय का निर्माण करवाया। "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009684
Book TitleBikaner Jain Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherNahta Brothers Calcutta
Publication Year
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size22 MB
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