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________________ ( १६ ) जाता है और पुस्तक अत्यन्त उपादेय और एक ऐतिहासिक सत्य बन जाती हैं । ज्यों ज्यों अनुक्रमणिकायें बनती जाती हैं, लेखकमें अधिकाधिक साधन सामग्री जुटाने के भाव बढ़ते जाते हैं और लेखक में अथक श्रम, अनुशीलन, मनन और विवेचन करने की मधुर रुचि बढ़ती जाती है और इस प्रकार पुस्तक अधिकतम सत्य एवं सुन्दर बन जाती है। शिला एवं प्रतिमा -लेखों में आये हुए संवत्, ज्ञाति, गोत्र, कुल, शाखा, ग्राम, नगर, तीर्थ, गृहस्थ, गच्छ, आचार्य, राजा, मंत्री, श्रेष्ठी आदि सर्व की परिचायिका अनुक्रमणिका है। शोधकों का यह समय और धन बचानेवाली हैं। इन सब बातों को दृष्टि में रखते हुए प्रमुख प्रमुख सर्व प्रकार की अनुक्रमणिकायें देने का प्रयत्न किया है । अन्तिम निवेदन | मैंने पुस्तक को साधनसामग्री एवं योग्यतानुसार अधिकतम ऐतिहासिक एवं रुचिकर और उपादेय बनाने का प्रयत्न तो किया है, लेकिन फिर भी अनेक त्रुटीयों एवं कमियों का रह जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । मेरी शक्ति के बाहर की बातों के लिये मैं क्षमाप्रार्थी हूँ । एक बात जो मेरे साथियों से निवेदन करनी है वह यह है कि मैंने इस कार्य को जिस शैली एवं मार्ग से पूर्ण किया है "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009682
Book TitleJain Pratima Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri, Daulatsinh Lodha
PublisherYatindra Sahitya Sadan Dhamaniya Mewad
Publication Year1951
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size5 MB
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