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प्रकाशकीय
श्रीजिनदत्तसूरि प्राचीन पुस्तकोद्धार-ग्रन्थमाला के महत्वपूर्ण प्रकाशनों से विद्वत्समाज भलीभांति परिचित है। जैन वाङमय की विविध शाखाओं के प्रामाणिक ग्रन्थों का प्रकाशन ही इसका एकमात्र ध्येय रहा है। भारतीय संस्कृति, साहित्य, लोकजीवन, और आध्यात्मिक साधना के पुनीत इतिहास पट पर वेधक प्रकाश डालनेवाले प्राकृत,संस्कृत और देश्यभाषा में गुम्फित दर्जनों ग्रन्थों का प्रकाशन विगत वर्षों में हुआ है ! इन मूल्यवान एवं प्रेरक प्रन्थों की प्रशंसा करनेवाले भारतीयविद्वानों में मुनि श्रीजिनविजयजी (संचालक राजस्थान पुरातत्व विभाग और भारतीय विद्या भवन बम्बई), प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य के परममर्मज्ञ डा० ए०एन० उपाध्ये (प्रो० राजाराम कालेज, कोल्हापुर) डा०बनारसीदास जैन (मूतपूर्व प्रो० ओरियंटल कालेज लाहौर)जैन साहित्य के गंभीर अन्वेषक प्रो० एच० डी० वेलणकर, (प्रो. विल्सन कालेज बम्बई) भारतीय विद्या के तलस्पर्शी विवेचक श्री पी० के० गोडे (क्युरेटर भांडारकर ओरियंटलरिसर्च इंस्टियूट पूना) तथा पुरातत्त्व के प्रकाण्ड पंडित डॉ० हँसमुखलालजी सांकलिया (डेक्कन कालेज रिचर्च इन्स्टिट्यूट पूना) आदि अदि प्रमुख हैं।
प्रन्थमाला के मुख्य संचालक और संपादक परमपूज्य स्वर्गीय आचार्य महाराज १००८श्रीजिनकृपाचंद्र सूरीश्वरजी के शिश्यरत्न उपाध्याय पदविभूषित मुनि श्री सुखसागरजी महराज एवं उनके सुयोग्य अन्तेवासी संशोधन प्रिय मुनि श्री मंगलसागरजी महराज हैं, जो मूक रूप से जैन साहित्य और संस्कृति की ठोस सेवा वर्षों से कर रहे हैं।
जैन धातुप्रतिमालेख उपाध्यायजी महाराज के शिष्य मुनिकांतिसागरजी की दीर्घकालीन साधना का फल है। १४ वर्ष की अवस्था से ही आपने इस कार्य को प्रारम्भ कर दिया था। जैनइतिहास के निर्माण में प्रतिमालेखों की उपयोगिता अपना स्थान रखती है। आशा है विद्वान इस संग्राहत्मक कृति का समादर कर हमें एतद्विषयक अन्य ग्रन्थों के प्रकाशन का अवसर देंगे।
इसके प्रकाशन में प्रतापचंदजी धनराजजी के परिवार में से श्रीसंपतलालजी सोहनलालजी की ओर से ४००) श्री मूलचंदजी २००) तथा श्रीयुत रतनचंदजी लालचंदजी की ओर से २००) सौ रुपयों की सहायता कर ज्ञानवृद्धि के निमित्त बने हैं। मैं आपको हार्दिक धन्यवाद देते हुए अपना वक्तव्य समाप्त करता हूँ।
"Aho Shrut Gyanam"