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E च ] एकत्र कर लिये और मन में निश्चय किया कि बिहार में आनेवाले जैन अजैन सभी धर्मों के लेखों को निष्पक्षपात पूर्वक एकत्र किया जाय। उसी निश्चय का यह फल है। मैंने जहाँ से भी लेख लिये उन स्थानों का उल्लेख निम्न भाग में कर दिया है। संग्रहीत समस्त लेख श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ही हैं। यद्यपि २५० से ऊपर दिगम्बर लेखों का भी मैंने संग्रह किया है पर स्थानाभाववशात उनका उपयोग इस संग्रह में नहीं कर सका। श्वेतांवर लेख भी बहुत से छोड़ देने पड़े।
इस संग्रह के अंत में एक दैनन्दिनी (डायरी) को मैंने उद्धत किया है। ऐसी ही छ: दैनन्दिनिये मेरे संग्रह में हैं, जिन में ३०० से ऊपर लेख हैं, पर मैं उनका उपयोग दूसरे भाग में करूंगा! परिशिष्टान्तर्गत लेखों में से बहुतों का प्रकाशन सर्व प्रथम इसी ग्रन्थ के द्वारा हो रहा है। वहाँ पर अाज वर्णित या उल्लिखित लेख मिलते हैं या नहीं यह तो मैं नहीं कह सकता। परन्तु हमारे तीर्थ-मन्दिरों में प्राचीन सामग्री न मिलने का सबसे बड़ा कारण तो यह है कि हम आज शुष्क सौंदर्य प्रेमी हो गये हैं। संगमरमर के मोह ने हमारी बहुत सी प्राचीन शिल्प सम्पत्ति नष्ट कर दी। यही हाल पालीताने में भी हो चुका है। श्राज से १६-२० वर्ष पूर्व की बात है । मेरे ज्येष्ठगुरु बन्द मुनि
मंगलसागरजी ने पहाड़ पर जीर्णोद्धार के समय वहाँ के कार्यकर्ता का ध्यान प्राचीनता की रक्षा की ओर आकृष्ट किया था, पर कुछ परिणाम न निकला। हमारी ही असावधानी से हमने बहुत कुछ खोया है और खोते जा रहे हैं।
धातुप्रतिमाओं के लेख लेते समय मैंने अनुभव किया कि दिगंबर मूर्तियाँ श्वेतोवर मन्दिरों में पायी जाती हैं और श्वेताम्बर मूर्तियाँ दिगम्बर मन्दिरों में । इसे संगठन का एक प्रतीक ही समझना चाहिये। उभय सम्प्रदायों में मूर्तिनिर्माण कला में पार्थक्य नहीं है, पर दिगम्बर प्रतिमाओं में मैंने परिकर के अग्रभाग में "चरण" और "शास्त्र का प्रतीक देखा है । कुछेक मूर्तियों में गोमट्टस्वामी का आकार भी । लेख लेखन शैली में भी थोड़ा सा अन्तर पड़ता है । धातु की प्राचीन प्रतिमाएँ साम्प्रदायिक मेदों से बिलकुल ऊपर उठी हुई वस्तु है। श्वेतांबर समाज के लेखों के कई संग्रह प्रकाशित हुए पर दिगंबर समाज इतिहास विषयक साधनों पर समुचित रूप से ध्यान नहीं दे रहा है। यदि कोई श्वेतांबर भाई लेख लेने की चेष्टा भी करता है तो वह सन्देहात्मक
"Aho Shrut Gyanam"