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पौत्रादि परिवार के पुण्यार्थ इन मंदिरों को बनवाये थे। चारों मंदिरों के मूलनायकजी के मूत्तियों को प्रतिष्ठा मूल मंदिर के साथ हो सं० १६७५ में हुई थो, यह उन पर के लेखों से स्पष्ट है। मंदिर नं० ४ में पट्टापलो का शिलालेख ( नं० २५७४ ) रखा हुआ है। मंदिर नं. ३ ओर नं ४ के योव में अलग ही एक त्रिगड़ा के ऊपर श्रोअष्टापदजी का भाव और धातु का सुदृश्य कल्पवृक्ष बना हुआ है जिसमें नाना प्रकार के फल लगे हैं। प्रवाद है कि यह त्रिगड़ा और श्रीअष्टापदजी का भाव बहुत प्राचीन है अर्थात् थाहरूसाहजो के जीणोद्धार के पहिले का है और आप उस त्रिगड़ पर कल्पवृक्ष बढाये थे। ५० लक्ष्मीचन्द्रजी लिखते हैं कि 'कल्पवृक्ष जीर्ण हो जाने से सं० १६४४ द्वि० क्षेत्र सु० १२ रौ में यह नवोन संघ की तरफ से बहाया गया है।
जिस रथ पर प्रभु मूर्ति को बैठा कर सेठ थाहरूसाहजी ने संघ निकाल कर श्रोसिद्धक्षेत्रजी यात्रा की थी वह रथ अभी तक मंदिर के हाते में रखा हुया है।
देवीकोट
यह मान बहुत प्राचीन है। यह जैसलमेर से १२ कोस पर दक्षिण पूर्व की ओर अवखित है। यहां पुराना किला है और प्राचीन हिन्दू मन्दिर है। यहां का जैन मन्दिर छोटा है। यह श्रीसंघ की ओर से सं. १८६१ में बना था। यहां प्राम के बाहर दादा स्थान भी है।
ब्रह्मसर
आज कल ब्रह्मसर में बहुत थोड़े श्रावकों के घर रह गये हैं। मैं यहां न जा सका था। यति लक्ष्मीचन्द्रजी से मालूम हुआ कि यह स्थान चार कोस उत्तर की ओर है और थोड़े ही दिन हुए यहां मोहनलालजी महाराज के उपदेश से श्रीपार्श्वनाथजी का नया मन्दिर बना है। आपने उस मंदिर के जितने लेख भेजे ये सब यथास्थान प्रकाशित किये गये हैं। हसर के दादा खान के सम्बन्ध में उन्होंने विवरण लिखे हैं वह इस प्रकार है:
ब्रह्मसर से एक भाईल उत्तर की ओर कुशलसूरिजी महाराज का स्थान है। यह स्थान लणिया गोत्र का धनाया हुआ है लेकिन इसका कोई स्पष्ट लेख नहीं है। इसका प्रचाई यह प्रसिद्ध है कि देरावर, जो कि
"Aho Shrut Gyanam"