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________________ ( १४ ) किले के मंदिर ( १ ) श्रीपश्विनाथजी का मंदिर : - किले के भीतर यह विशाल बावन जिनालय सहित दिर है और मूलनायक श्रीचिंतामणि पार्श्वनाथ हैं । यहां प्रशस्तियों के दो शिलालेख लगे हुए हैं । प्रशस्तियों से ज्ञात होता है कि निर्माण के समय मंदिर का 'लक्षण विहार' नामकरण हुआ था। उस समय जैसलमेर में महारावल लक्ष्मणजी राज्य करते थे और इस कारण उन को राजभक्त प्रजा अपने मंदिर का नाम उनके नाम पर रखा । प्रशस्तियों से ज्ञात होता है कि स मंदिर के तैयार होने में १४ वर्ष लग गये थे । सं० १४५६ में खरतरगच्छाघोश जिनराजसूरिजी के उपदेश से सागरचन्द्रसूरिजी ने मंदिर की नींव डाली थी और सं० १४७३ * मे जिनचंद्रसूरिजी के समय में निर्माण कार्य समाप्त होने पर प्रतिष्ठा हुई थी । साधु कीर्त्तिराजजो ने प्रशस्ति की रचना की थी, वाचक जयसागरगणिजी ने संशोधन किया था और कारीगर धन्ना ने प्रशस्ति खोदी थी। ओसवंश के शंका गोत्रीय सेठ जयसिंह नरसिंह वगैरहों की यह प्रतिष्ठा कराई हुई है । जिनसुखसूरिजी अपने जेसलमेर - चैत्यपरिपाटी में इस मंदिर की बिंद संख्या बावन देहरी में ५४५, दोनों चौक में १४२, ऊपर के मण्डप में १२, मूल गंभारे में ११४, तिलक तोरण में ६२, दूसरे तोरण में १२ और मंडप के समीप २३ कुल ११० लिखते हैं । वृद्धिग्नजी 'वृद्धिरत्न-माला' में इस मंदिर की मूर्त्तिसंख्या १२५२ लिखे हैं । श्रोचिंतामणि पार्श्वनाथजी के मंदिर के विषय में खरतगच्छाचार्य जिनभद्रसूरिजी के पाट महोत्सव पर सप्त 'भ-कार' की कथा मुनि मोहनलालजी कृत 'आचार रक्षाकर' दूसरा प्रकाश पृ० १२२ में इस प्रकार लिखो है “सं । १४६१ श्री सागर चन्द्राचार्य श्री जिनराज सरि पट्टे श्री जिनवर्द्धन सूरि को स्थापन कीर थे, तिके एकदा जेशल मेरंगढ में श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथके पास में रही क्षेत्रपालकी मूर्त्ति देखके खामी सेवकका atar ना अयुक्त है, ऐसा विचार करके क्षेत्रपालकी मूर्त्तिकों उठायक दरवज्जेके विषे स्थापन करी तब starrera Her थका क्षेत्रपाल जहां तहां गुरुमहाराज का चतुर्थ व्रतका + मंगपणा दिखलाने लगा, इसीतरे * स्वरतरगच्छोय मुनि वृद्धिरत्नजी कृत 'वृद्धिरत्न माला' में इस मंदिर की प्रतिष्ठा का समय सं० १२१२ लिखा है परन्तु यह जेसलमेर नगर की स्थापना का समय है । मंदिर दो अढाई सौ वर्ष बाद घने थे। मंदिर प्रतिष्ठा का वर्णन और संवत् प्रशस्ति में स्पष्ट है । * जैनियों के पंच महाव्रत हैं। चतुर्थ ये है अवशिष्ट ( १ ) प्राणातिपात, (२) मृषावाद, ( ३ ) अदत्तादान, ओर ( ५ ) परिग्रह | "Aho Shrut Gyanam"
SR No.009680
Book TitleJain Lekh Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPuranchand Nahar
PublisherPuranchand Nahar
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size20 MB
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