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कहां तक कूट नोति का प्रयोग किया था उसका वर्णन पाठकों को जेसलमेर के हरेक इतिहास में मिलंगे। __ शहर के तपगच्छोय श्री उपाश्वनाथजी के मंदिर • को प्रतिष्ठा इनके राजत्वकाल में सं० १८६६ में
हुई था और देवोकोट का मंदिर भो सं० १८६० में इनके समय में बना था । ४० गज सिंह- मूलराज के पौत्र थे। इनके समय में भाटो सामंतो द्वारा लूट खसोट के कारण सीमान्त के
राजाओं से विवाद हुआ था, लेकिन वृटिश राज्य को मध्यस्थता में शांतिपूर्वक मिट गया था । इनके राजत्वकाल में गजरूपसागर नामक तालाव और गजविलास प्रासाद यने थे। इनके राज्यकाल में सेठों ने शत्बुजय तीर्थ का प्रसिद्ध संघ निकाला था जिसका विशेष वर्णन लेख नं०
__ प्रथम काबुल की चढ़ाई में वृटिश सरकार को इनने विशेष सहायता दी थी। ये प्रजाप्रिय शासक थे और राज्योन्नति में तत्पर रह कर २६ वर्ष राज्य किये थे। राज्यकाल सं० १८७६ -
१६०२ ( ई० १८२०-१८४६ ) । ४१ रणजीत सिंह-गज सिंह के भ्रातप्पुत्र थे । गज सिंह के पुत्र नहीं रहने के कारण इनके लघुभ्राता के
तीन वर्ष के पुत्र रणजीत सिंह को गद्दी मिली और १८ वर्ष राज्य के पश्चात् इनका भी निपुत्रक अवस्था में स्वर्गवास हुआ । इनके शासन काल में ई० १८५७ ( सं० १९१४ ) में भारत का प्रसिद्ध सिपाही विद्रोह हुआ था । अमरसागर के पंचायती मंदिर की प्रतिष्ठा इनके समय में
सं० १९०३ में हुई थो। राज्यकाल सं० १९०२-१९२० ( ई० १८४६---१८६४ ) । ४२ बरोशालजो-रणजीत सिंह के भ्रातपुत्र थे। इन्हीं के समय में ईष्ट इंडिया कम्पनी से महागणी
विक्टोरिया ने भारत सम्राज्य का शासन अपने हाथ में लिया था और इस उत्तव पर दिल्ला में सं० १९३३ (६० १८७७ ) में प्रथम दबार हुआ था । अमरसागर स्थित पटुओं के प्रसिद्ध मंदिर को प्रतिष्ठा सं० १९२८ में इनके गज्यकाल में हुई थी। गजरूपसागर के दादाजी के चरण की प्रतिष्ठा सं० १९२१ में और ब्रह्मसर के मंदिर की प्रतिष्ठा सं० १६४४ में इनके समय में हुई थी। राज्यकाल सं० १९२१-१६४८ (ई. १८६४---१८६१ ) ।
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* इस मंदिर की प्रशस्ति ( लेख नं० २१७५ ) में स्वरूप सिंह और इनके पुत्र शालिम सिंह का वर्णन है । टाड साहेब अपने इतिहास में इनको जेम बताये है, यह सर्वथा भ्रम है। ये माहेश्वरी जाति के वैष्णव धर्माबलम्बी थे। राजपुताना में ही ओसवाल वंश की सृष्टि हुई थी और वे लोग जेनी थे। मेराड़, मारवाड़, बीकानेर भादि समस्त प्रधान २ राज्य में यही ओसवाल वंशज जेनो लोग अमात्य मेहता होते थे। इसो भ्रम से शायद टाउ साईब इनको जैनी लिख दिये हैं।
"Aho Shrut Gyanam"