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[५] (२५) दताच्चिरं ॥ २६ ॥ प्रशस्तिर्विहिता चेयं कीर्तिराजेन साधुना । धन्नाकेन समुत्कीरणी सूत्रधारेण सा मुदा ॥ २७ ॥ शोधिता वा जयसागरगणिना श्री।
মহানি নয় ?
[2113 ] * (१) ॥ जगदमितफल वितरण विधिना निरवधिगुणेन यशसा च । यः पूरितविश्वासः
स कोपि जगवा (२) न् जिनो जयति ॥ १॥ मनोनोष्टार्थसिद्ध्यर्य कृतुनम्यनमस्कृतिः । प्रशस्तिमथ
वक्ष्येहं प्रतिष्टाविमहः (३) कृतां ॥२॥ ककेशवंश विशदप्रशंसे रंकान्वये अष्ठिकुवप्रदीपौ । श्रीजाषदेवः
पुनरासदेवस्तजाप (४) देवोद्भवांवटोजून् ॥ ३ ॥ विश्वत्रयी विश्रुननामधेयस्तदंगजो धांधलनामधेयः ।
ततोपि च हो तनयात्र
(५) भृताः(ता) गजूस्त धान्यः किल जीमसिंहः ॥ ४॥ सुतौ गजूनौ गणदेवमोषदेवौ च
तत्र प्रथमस्य जाताः।
* यह लेख मंदिर के दक्षिण दरवाजे की दाहिने तरफ दीवार पर काले पत्थर में खुदा हुआ २४ पंक्तियों का है। इस पत्थर के नीचे तरफ के दक्षिण कोण का कुछ अंश टूटा हुआ है। पंक्तियां सब ठीक है इससे यह प्रतीत होता है कि लेख खोदने के पूर्व से
से खंडित था। इसकी लम्बाई १ फुट ४॥ च और चौड़ाई १ फुट १॥ ञ्च है। इसकी नकल भी दीवार पर ऊंचे में लगे रहने के कारण ठीक से नही ली जा सकी । इस लेख का कुछ अंश भी भण्डारकर साहेब के सन् १९०४-५ और १९०६ के रिपोर्ट के पृ. ६३. 08८ में प्रथम छपा था। G.O.S. No. 21 के परिशिष्ट नं.२ में सम्पूर्ण रूप से छपा है, परन्तु वहां "शांतिजिनालयस्य प्रशस्तिः" ऐसा लेख का परिचय है इसका कारण समझ में नहीं आया।
(१) G. (0. S. का पाठ " कृत " अशुद्ध है, लेख में " कृतु " पढा जाता है। ( लेख में अभूताः" स्पष्ट है परन्तु यह अशुद्ध है यहां "अभूतां" होना चाहिये। G.O.S.में भी “भभता" छपा है।
"Aho Shrut Gyanam"