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प्राचीनलिपिमाला. उसके चौथे मंश अर्थात् मनुष्यों की ही वाणी का निर्वचन (व्याकरण) किया क्योंकि उसकी ग्रह में से चतुर्थाश ही मिला था.
उपर्युक्त प्रमाणों से पाया जाता है कि उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण और तैसिरीय संहिता के समयतक व्याकरण के होने का पता चलता है. यदि उस समय लिखने का प्रचार न होता तो श्याकरण और उसके पारिभाषिक शब्दों की चर्चा भी न होती, क्योंकि जो जातियां लिखना नहीं जानती वे छंदोबद्ध गीत और भजन अवश्य गाती हैं, कथाएं कहती हैं परंतु उनको स्वर, व्यंजन, घोष, संधि, एकराचन, बहुवचन, लिंग मादि व्याकरण के पारिभाषिक शब्दों का ज्ञान सर्वथा नहीं होता. इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हिंदुस्तान में ही भली भांति मिल सकता है,जहां ३१३४१५३८६ मनुष्यों की भाषादी में से केवल १८५३६५७८ मनुष्य लिम्वना पढ़ना जानते हैं बाकी के २६४८७५८११ अभी तक लिखना पहना नहीं जानते २. उनमें किसीको भी व्याकरण के पारिभाषिक शब्दों का कुछ भी ज्ञान नहीं है. व्याकरण की रचना लेखन कला की उन्नत दशा में ही होती है और उसके लिये भाषा का सारा साहित्य टटोल पड़ता है और उसके प्रथम रचयिता को उसके पारिभाषिक शब्द गढ़ने पड़ते हैं. भारतवर्ष की न असभ्य और प्राथमिक जातियों के यहां लिखित साहित्य नहीं है उनकी भाषात्री के व्याकरण बिना जानने वाले यूरोपिअन् विद्वानों ने अभी अभी पनाये हैं.
ह, र ६ में गायत्री, उष्णिन, अनुष्टुभ, बृहती, विराज, त्रिष्टुभ् और अगती छंदों के नाम मिलते हैं. जसनेयि संहिता में इनके अतिरिक्त 'पंक्ति' छंद का भी नाम मिलता है मौर हिपदा, त्रिपदा, चतुष्पदा, षट्पदा, ककुभ् श्रादि छंदों के भेद भी लिखे हैं'. अथर्ववेद में भिन्न भिन्न स्थानों में वृक्ष नामों के अतिरिक्त एक स्थान पर छंदों की संख्या ११ लिखी है. शतपथ ब्राह्मण में मुख्य छंदों की संख्या ८ दी है और तैत्तिरीय संहिता', मैत्रायणी संहिता, काठक संहितार तथा शतपथ ब्रामण में कई छंदों और उनके पादों के अक्षरों की संख्या तक गिनाई है.
लिखना न जाननेवाली जानियां छंदोबद्ध गीन और भजन गाती हैं, और हमारे यहां की स्त्रियां, जिनमें केवल १५ पीछे एक लिखना जानती है" और जिनकी स्मरणशक्ति बहुधा पुरुषों की अपेक्षा प्रबल होती हैं, विवाह आदि सांसारिक उत्सवों के प्रसंग प्रसंग के, एवं चौमासा, होली भादि त्यौहारों के गीत और यहतेरे भजन, जिनमें विशेष कर ईश्वरोपासना, देवी देवताओं की स्तुति या बेदांत के उपदेश हैं, गाती हैं, यदि उनका संग्रह किया जाये तो संभव है कि वेदों की संहितामों से भी उनका प्रमाण बढ़ जाये, परंतु उनको उनके छंदों के नामों का लेश मात्र भी ज्ञान नहीं होता. छंदःशास्त्र का प्रथम रचयिना ही छंदोबद्ध साहित्यसमुद्र को मथ कर प्रत्येक छंद के अक्षर या मात्रामों की संख्या के अनुसार उनके वर्ग नियत कर उनके नाम अपनी तरफ से स्थिर करता है, तभी लोगों में उनकी प्रवृत्ति होनी है. लिखना न जानने वाली जातियों में छंदों का नामज्ञान नहीं होता. वैदिक
. शतपथ ग्रा. ४.१.३.१२, १५-- १६. २. इ.स. १६११ की हिन्दुस्तान की मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट जिल्ब १, भाग २, पृ.७०.७२. ३. ऋग्वे. सं. ११०.१४.१६, १०.१३२.३.४). १. बजु. वाज. सं. (१.८ १४. १६; २३.३३, २८.२४ आदि! ५. प्रथ. सं. (८.६.१६). २. बिराउसमामि सदाहि (श.बा.०३.३.६).
.. सर थमं पर सागरात वीfu... बदामरा जम गायनरी पदकामाचरा न पिरसरकारमा पर तेग जगमी सम्पदा करो (ते.सं.६.१.१.६-७). ८. मा..."चतुर्था सम्पा अशा चराणि भरनी चतुर्क मस्या मज मनातरादि इत्यादि (म.सं.१.११.१०) . भापी...."चतुर्थी हिमस्या पर पडसर गिर... जिसस्पारसन मनाचराचि । इत्यादि (का.सं.१०.४.)
1. वारणारा अगनी।।। .. "पदिराकानी.... |... दमारा विरार (श.प्रा. E.३.३.) स्वादि को जगह
१५. हिन्दुस्तान की ई.स. १९११ की मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट, जिल्द १. भाग २, पृष्ट ७०-७१.
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