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भारतवर्ष में लिखने के प्रकार की प्राचीनता.
'लिबिशन्द (जिनका अर्थ 'लिखना'है) और 'लिपिकर' (लिखने वाला)था 'यवनानी" (जिसका अर्थ कात्यायन और पांजलि ने 'यवनों की लिपि किया है) शब्द बनाने के नियम दिये हैं और 'स्वरित' के चित्र तथा 'मंथ' (पुस्तक) का भी उल्लेख किया है. उसी पुस्तक से
नामक ग्रंथ में लिखा है कि संग्रह के जो वाक्यपदीय' के टीकाकार पुण्यराज के लेखानुसार एक लाख श्लोक का था, अस्त हो जाने पर पतंजलि ने 'महाभाष्य' लिखकर संग्रह के माराय का संक्षेप किया. पतंजलि का समय इ.स. पूर्व की दूसरी शतामी निश्चित है. ऐसी दशा में पाणिनि और पतंजलि के बीच की शादियों का मन्टर होना चाहिये.
१. विपिमानिमा ... सिपिसिविरबि ...(३२२१). ९. रहा .... "पाययन .... (४.१.४६). ३. बनमामिणाम् (५१.४६ पर वार्तिक ३). ४. परमाक्षिणामिति र परमानी शिभिः (४.१.४८ पर भाग्य) 1. बरिमाधिकारः (१.३.११).
एक ही बात बार बार दोहरानाम परे इस लिये पाणिनि ने कुछ बातें शीर्षक की तरह स्थान स्थान पर लिख कर नियम कर दिया है कि इसके मागे यह सिलसिला चलेगा. इसको अधिकार कहते है और यह अधिकार स्खरित चिश से जलाया गया है. यह स्वरित वेद के उच्चारण के उदास, अनुदात्त, स्थरिन की तरह उचारल का ऊंचा या नीचा स्वर नहीं किंतु वर्ण पर का लिखित चिक है (सरिको नाम सरचिौपईयों' कसरधर्मःपा.१.३.११ परकाशिका) क्योंकि भाभ्यायी का सूत्रपाठ एकति या एकस्वर का पाठ माना जाता है, उसमें उदास मनुबात. स्वरिल का नहीं हो सकता था सच पाडात पतंजलि के महामाण्य के पहले मात्रिक पर कैयट की टीका). पतंजलि ने इस सूत्र (१.३.११) के ग्यारयान में यह शंका उठाई है कि स्थरिन से हम यह नहीं जान सकते कि यह अधिकार कहां तक जायेगा और इस शंका पर कात्यायम का समाधान लिखा है कि जितने सूत्रों तक अधिकार चलाना हो उतनी ही संख्या का पर्ण उसपर लिख दिया जाय (बानियों म हामनी धोमानिनिस्सिका कैयर सपररांस दिया है कि पा.सू. ५.१.३० पर ''मनुबंध लगा देने मे यह जाना जायगा कि यह अधिकार दो सूत्रों तक चलेगा. यो शिवसूबों में जो बलों का कम है उसके स्थानीय मान से म= =२,३-३, इत्यादि गिनती के संकेत पाणिनि के स्वरित चित्र में होना कारयायन ने मामा है. भागे बल कर यह भी कहा है कि जहां अधिकार अधिक संख्या के सूत्रों में जाने वाला है और मन वर्ष कम हैं वहां अधिकार जतलाने वाले सूत्र में पाणिनि ने 'मार (अमुक शब्द या सूत्र से पहले पहले) लगाया है (पतंजलि-धेरोमीपराहप चा. मीका भूगमा गोमागभिकारो रनमें कच कच कचम् : कात्यायन-भूमि प्रासच पतंजलि-भूमि प्रवचन कम. भूचास प्राममुभ नि सयभ). जहां पर 'प्रार' शब्द काम में नहीं लिया है और जहां पर सूत्रों की संख्या अल (वर्ण) से अधिक है (जैसे ३. १. ११ का अधिकार ५४१ सूत्रों पर है) वहां कोई और स्वरित चिऋ काम में माता होगा. इसीके अनुसार पाणिनि ने जहां यह अधिकार किया है कि 'रीश्वर' के पहले पहले सब निपात कहलावैगे (पागदरीकरा पाना पा. १.४.५६) वहां शुद्ध ईश्वर' शम्ध काम में न लाकर कृत्रिम रीवर काम में लिया है क्योंकि हर शब्द जहां माता है वहीं यह अधिकार समाप्त होता है (अधिरीपर१.४.६७), आग जहां ईश्वर शब्द आया है। पर मोसनकामी ३. ४.५३) यहां तक यह प्रधिकार नहीं चलता. यो रीलर शब्द काम में खाने से दो ही बाते प्रकट होती है, या तो पाणिनि ने अपने मागे के सूत्र तोते की तरह रट लिये थे इससे 'प्लर' पद का प्रयोग किया, या उसने अपना व्याकरण लिख कर तैयार किया जिसकी लिखित प्रति के सहारे अधिकार सूत्र के शम स्थिर किये. पाठकों से यह कहना व्यर्थ है कि हम दोनों अनुमानों में से कौन सा मानना उचित है.
ऐसे ही पाणिनि ने अपने सूत्रों में अपने ही बनाये धातुपाठ में सफण मादि सात धातुओं को 1 च मानां ६.४.१२४) 'अक्षिति भादि६ धातु' (जचित्यारक पर ६.१.६) श्रादि उल्लेख किया है. वहां यह मानना उचित है कि पाणिनि ने सूत्र बमान के पहिले धातुपाठ रट रक्खा था, या यह कि धातुपाट की लिखित पुस्तक उसके सामने थी?
'ग्रंथ'शद पाणिनि ने रचित पुस्तक के अर्थ में लिया है। समुदाय यमो य१.३.७५: धिलत्य का ५३.38 जन पञ्च ४.३.११६ श्रादि). वेद की शाखामों के लिये, जो ऋषियों से कही गई है जिन्हें श्रास्तिक हिन्दू ऋषियों की बनाई हुई
ना नहीं मानते) 'प्रोत' शब्द काम में लाया गया है, 'कृत नहीं मन प्रो कम ५.३.१०१) और 'प्रोक्त ' ग्रंथों में पुराणप्रोक्त शम्द के प्रयोग से दिखाया है कि कुछ वेद के ब्राह्मण पाणिमि के पहिले के थे और कुछ उन्हीं के काल के (पुराको माया. कम्पप ४.३.१०५ वार्तिक 'सल्पकात्यान), किंतु पाराशय (पराशर के पुत्र) और मंद के 'भिसूत्र, तथा शिलालि भार रुशास के 'नटसूत्रों' को न मालूम क्यों प्रोक्त' में गिनाया है. जो हो. भिक्षुशास्त्र' और 'मायशास्त्र' के दो दो मत्रग्रंथ उस समय विद्यमान थे (पारार्थमिसामियां मिरवयोः । कर्मन्दकामाचादिनि ४.३.११०-११) नवीन विषय पर पहिले पहिल बनाये हुए ग्रंथ को 'उपशात' कहा है (अपनाते ४.३.११५: सपशोधनम नहायाचिणासाची १.४.२१). किसी विषय को लेकर (अधिकृत्य) बमे एप ग्रंथों में 'शिशुक्रन्दीय' (बों के रोने के संबंध का ग्रंथ), 'यमसभीय' (यम की सभा के विषय का ग्रंथ), 'दो नाम मिला कर बना ग्रंथ' (जैसे 'अग्निकाश्यपीय':-यह नाम पाणिनि ने नहीं दिया) और 'इंद्र
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