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भारतवर्ष में लिखने के प्रचार की प्राचीनता.
(५६७-८४) ४४३ का होगा.
इसकी लिपि अशोक के लेबों की लिपि से पहिले की प्रतीत होती है. इसमें 'वीराय' का 'बी' अक्षर है. उक्त 'बी' में जो 'ई' की मात्रा का चिन्ह है वह न तो अशोक के लेखों में और न उनसे पिछले किसी लेख में मिलता है, अत एव वह चिन्ह अशोक से पूर्व की लिपि का होना चाहिये, जिसका व्यवहार अशोक के समय में मिट कर उसके स्थान में नया चिन्ह बर्ताव में आने लग गया होगा .
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दूसरे अर्थात् पिभाषा के लेख से प्रकट होता है कि बुद्ध की अस्थि शाक्य जाति के लोगों ने मिलकर उस ( स्तृप ) में स्थापित की थी. इस लेख को वूलर ने अशोक के समय से पहले का माना है. वास्तव में यह बुद्ध के निर्वाणकाल अर्थात् ई. स. पूर्व ४०७ के कुछ ही पीछे का होना ई.स. चाहिये.
४.
३
इन शिलालेखों से प्रकट है कि ई.स. पूर्व की पांचवीं शताब्दी में लिखने का प्रचार इस देश में कोई नई बात न थी.
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नार्कस' कहता है कि 'यहां के लोग रुई ( या सई के चिथड़ों को कूट कूट कर लिखने के वास्ने कागज़ बनाते हैं. मॅगेस्थिनीज़ लिखता है कि यहां पर
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* महामहोपाध्याय डॉ. सतीशचंद्र विद्याभूषण ने भी इस लेख को श्रीर संवत् म का माना है.
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अशोक के समय अथवा उससे पूर्व व्यंजन के साथ जुड़ने वाली स्वरों की मात्राओं में से केवल 'ई' की प्राचीन मात्रा लुप्त होकर उसके स्थान में नया चिन्ह काम में आने लगा ऐसा ही नहीं, किंतु 'श्री' की मात्रा में भी परिषर्तन हुआ होगा, क्योंकि महाक्षत्रप रुद्रदामन के गिरनार के लेख में 'श्री' की मात्रा तीन प्रकार से लगी है :- 'पी' के साथ एक प्रकार की, 'मी' और 'मी' के साथ दूसरे प्रकार की और यौ' के साथ तीसरी तरह की है (देखो लिपिपत्र मयां ) इनमें से पहिले प्रकार की मात्रा तो अशोक के लेखों की शैली की ही है ('ओ' की मात्रा की बाई तरफ एक और भाड़ी लकीर जोड़ी गई है ), परंतु दूसरे प्रकार की मात्रा की उत्पत्ति का पता अशोक के लेखों में नहीं लगता और में पिछले किली लेख में उसका प्रचार पाया जाता है, जिससे यही अनुमान होता है कि उसका रूपांतर अशोक से पूर्व ही हो गया हो और किसी लेखक को उसका ज्ञान होने से उसने उसका भी प्रयोग किया हो, जैसे कि कुटिल लिपि की 'श्रा को मांगा (जो व्यंजन के ऊपर लगाई आती श्री ) का लिखना इस समय से कई शताब्दी पूर्व से ही उठ गया है और उसके स्थान मैं जन की दाहिनी ओर एक बड़ी लकीर '' लगाई जाती है, परंतु कितने एक पुस्तकलेखकों को अब भी उसका है और जब ये भूल से कहीं 'आ' की मात्रा छोड़ जाते हैं और अंजन की दाहिनी ओर उसके लिखने का स्थान नहीं होता त उसके ऊपर कुटिल लिपि का
चिन्ह लगा देते हैं.
● जिस पत्थर के पात्र पर यह लेख लदा है वह इस समय कलकले के 'इंडिअन म्यूज़िश्रम् ' में है.
C.
ज. रो. प. सो; सन् १८६ पु. ३८६.
1.
बुद्ध का देहांत (निर्माण) ई.स. पूर्व ४८७ के क़रीब कुसिनार नगर में हुआ. उनके शरीर को चन्दन की लकड़ियों से जला कर उनकी जली हुई अस्थियों के हिस्से किये गये और राजगृह, वैशाली, कपिलवस्तु, अलकप्प, रामप्राम, पाषा, वेददीप और कुसिनार वालों ने उन्हें लेकर अपने अपने यहां उनपर स्तूप बनवाये. कपिलवस्तु शाक्यराज्य की राजधानी थी और बुद्ध वहीं के शाक्यजाति के राजा शुद्धोवन का पुत्र था अत एव पिमात्रा के स्तूप से निकली हुई अस्थि efreeस्तु के हिस्से की, और वहां का स्तूप बुद्ध के निर्वाण के समय के कुछ ही पीछे का बना हुआ होना चाहिये. ऐसा मानने में लिपिसंबंधी कोई भी बाधा नहीं आती.
4.
ई. स. पूर्व ३२६ में भारतवर्ष पर चढ़ाई करनेवाले यूनान के बादशाह अलेक्ज़ेंडर (सिकंदर) के सेनापतियों में से एक मिश्रार्कस भी था. वह उसके साथ पंजाब में रहा और यहां से नाव द्वारा जो सेना लड़ती भिड़ती सिंधु के मुल तक पहुंची उसका सेनापति भी नही था. उसने इस पढ़ाई का विस्तृत वृत्तांत लिखा था, जिसका खुलासा परि अ ने अपनी इंडिका' नामक पुस्तक में किया.
मॅक्समूलर का लिखना है कि 'मिश्रार्कस् भारतवासियों का कई से कागज़ बनाने की कला का जानना प्रकट करता है. हि. प. मं. लि. पृ. ३९७.
ई.पू. ६.
स. पूर्व ३० के ग्रामपाम सीरिया के बादशाह युकस (Bicleuka Nikator) ने मँगेरियनीज़ नामक
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