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________________ प्राचीन लिपिमाला रंगीन स्याही. रंगीन स्याहियों में लाल स्याही मुख्य है. यह दो तरह की होती है. एक तो अलता की और दूसरी हिंगलू की, जो उसको गोंद के पानी में घोल कर बनाई जाती है. हस्तलिखित वेद के पुस्तकों में स्वरों के चिक, और सब पुस्तकों के पत्रों पर की दाहिनी और बगई ओर की हाशिये की दो दो खड़ी लकीरें अलता या हिंगल से बनी हुई होती हैं. कभी कभी अध्याय की समाप्ति का अंश, एवं 'भगवानुवाच', 'ऋषिरुवाच' प्रादि वारय तथा विरामसूचक खड़ी लकीरें लाल स्याही से बनाई जाती हैं. ज्योतिषी लोग जन्मपत्र तथा वर्षफल के लंबे लंबे स्वरड़ों में बड़े हाशिये, माड़ी लकीरें तथा भिन्न भिन्न प्रकार की कुंडलियां लाल स्याही से ही बनाते हैं. सूखे हरे रंग को गोंद के पानी में घोल कर हरी, जंगाल में जंगाली और हरिताल से पीली स्याही भी लेखक लोग चनाते हैं. कभी कभी पुस्तकों के अध्याय आदि समाप्ति के अंशों में वे इन रंगीन पहियों का उपयोग करते और विशेष कर जैन पुस्तकों में उनसे लिखे हुए अक्षर मिलते हैं. यह ॥ सय पुस्तकलेखक जिन अक्षरों या शब्दों को काटना होता उनपर हरिताल फिस देते अथवा स्या से उनके चारों ओर कुंडल या ऊपर बड़ी लकीरें बना दिया करते थे. सोने और चांदी की स्याही सोने और चांदी के परकों को गोंद के पानी में घोट कर सुनहरी और रुपहरी स्थाहियां बनाई जाती हैं. इन स्याहियों से लिखने के पहिले पन्ने सफेद हो तो उन्हें काले या लाल रंग से रंग लेते हैं. फिर कलम से उनपर लिम्व कर अकीक या कौड़े आदि से घोटते हैं तष अक्षर चमकीले निकल पाते हैं. ऐसी स्याहियों का उपयोग विशेष कर चित्रकार लोग चित्रों में करते हैं तो भी श्रीमंत लोग प्राचीन काल से उनका उपयोग पुस्तकादि लिखवाने में कराते थे जिसके उदाहरण मिल पाते हैं. के ढक्कन पर 'महामोगलानस' चुदा है और भीतर 'म' अक्षर स्याही का लिखा हुआ है. सारिपुष और महामोगलान दोनों बुद्धदेव (शाक्य मुनि) के मुख्य शिष्य थे. सारिपुत्र का देहांत बुद्धदेव की मौजूदगी में हो गया था और महामोगलान का बुख के निर्वाह के बाद हुआ था. यह स्तूप ई.स. पूर्व की तीसरी शताब्दी का बना हुआ माना जाताई (कनिंगहाम का मिलमा टोप्स', पृ. २६५-३०८). यदि ये डियो उक्त स्तूप के बनने के समय नये बनाये जा कर उनमें वे हडिया रक्सी गई थीं ऐसा माना जाये तो ये स्याही से लिखे हुए अक्षर ई. स. पूर्व की तीसरी शताची के होने चाहिये परंतु यदि यह माना जाये कि ये बिम्ब किसी अन्य स्तुप से निकाले जाकर सांची के स्तूप में रक्खे गये ये तो उक्त स्याही के अक्षरों के लिखे जाने का समय ईस पूर्व की पांचवीं शताब्दी होगा. १. अजमेर के सेठ कल्याणमल ढढा के पुस्तकसंग्रह में बहुत सुंदर अक्षरों में लिखा हुया 'कल्पसूत्र' है जिसका पहिला पत्रा सुवर्ण की स्याही से लिखा हुआ है. यह पुस्तक १७ वीं शताब्दी का लिखा हुआ प्रतीत होता है. सुवर्ण की स्याही से पूरे लिखे हुए दो जैन पुस्तकों का सिरोही राज्य के जैनपुस्तकसंग्रहों में होना विश्वस्त रीति से सुना गया है परंतु ये मेरे देखने में महीं आये. वि.सं.१९२२ के करीब मेरे पिता ने उदयपुर के पंरित सदाशिव से एक छोटा पत्रा सोने की स्याही से और दूसरा चांदी की स्याही से लिखवाया, दोनों अब तक विद्यमान हैं और रंगीन कागज़ो पर लिखे हए है, सोने की स्याही से लिखी हुई फारसी की एक किताब अलवर के राज्यपुस्तकालय मे है पेसा सुना जाता है. ऐसी ही फारसी की एक किताब सेठ कल्याणमल दट्टा के यहां मिरवी रक्खी हुई है परंतु उसपर मुहर लगी हुई होने के कारण रसका नाम मालूम नहीं किया जा सका. सेउ कल्याणगल ढहा के यहां कई हस्तलिखित पुस्तकों के संरकी देशी छीट के पदे की एक पुरानी किनाब है जिसम ‘यंत्रावचूरि' नामक पुस्तक १६ पत्रो (३८ पृष्ठ) पर चांदी की स्याही से बड़े ही सुंदर अक्षरों में लिखा हुआ है. जिसके प्रत्येक पृष्ट के चारो तरफ के हाशिय रंगीन लकीरों से बनाये गये हैं. हाशियों पर जो बात लिखी है वही काली स्याही से है बाकी सब चांदी की स्याही से है. चांदी की स्याही से लिखा हुआ हिस्सा कागजको पहिल लाल या काला रंगने के बाद लिखा गया है. पुस्तक में संवत् नहीं है परंतु यह ई. स. की १५वीं शताब्दी के श्रासपास का लिखा हुआ प्रतीत होता है. पत्रे इतने जीर्ण हो गये है कि हाथ देने से टूटते है. दोदो पृष्ठों के मीच रेशम के टुकरे रक्खे घे भी बिलकुल जीर्णशीर्य हो गये हैं. Aho! Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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