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लेखनसामग्री
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तभी उनपर पुस्तक लिखे जाते थे. जैन लेखकों मे काम की इतकें लिखने में जिली हुई पुस्तकों का अनुकरण किया है, क्योंकि उनकी लिखी हुई पुरानी पुस्तकों में लाशों की पुस्तकों की नई प्रत्येक पक्ष का मध्य का हिस्सा, जहां डोरी डाली जाती थी, बहुधा काही छोड़ा हुआ मिला है जिसमें कहीं हिंगलू का वृत्त और चतुर्मुख बापी आदि के रंगीन या खाली चित्र मिलते हैं. इतना ही नहीं, ई. स. की १४वीं शताब्दी की लिखी हुई पुस्तकों में प्रत्येक पने और ऊपर नीचे की पाटियों तक में छेद किये हुए भी देखने में आये हैं यद्यपि उन छेदों की कोई आवश्यकता न थी.
भारतवर्ष के जलबायु में कागज बहुत अधिक काल तक नहीं रह सकता. कागज पर लिखी हुई पुस्तकों में, जो अब तक इस देश में मिली हैं, सब से पुरानी ई. स. १२२३-२४ की बनाई जाती है', परंतु मध्य एशिया में चारकंद नगर से ६० मील दक्षिण 'कुगिभर' स्थान से जमीन में गड़े हुए भारतीय गुप्त लिपि के ४ पुस्तक मि. बेवर को मिले जो ई. स. की पांचवीं शताब्दी के आस पास के होने चाहियें इसी तरह मध्य एशिया के कारागर आदि से जो जो पुराने संस्कृत पुस्तक' मिले हैं वे भी उतने ही पुराने प्रतीत होने हैं.
रुई का कपड़ा.
रुई का कपड़ा जिसको 'पट' कहते हैं प्राचीन काल से लिखने के काम में कुछ कुछ माता था और अब तक भी आता है. उसे भी कागजों की तरह पहिले आटे की पतली लेई लगा कर सुखाते हैं, फिर शंख यादि से घोट कर चिकना बनाते हैं तब वह लिखने के काम में जाता है. जैनों के मंदिरों की प्रतिष्ठा के समय अथवा उत्सवों पर रंगीन चावल आदि अत्रों से जो भिन्न भि मंडल बनाये जाते हैं उनके पटों पर बने हुए रंगीन नकशों का संग्रह जैन मंदिरों या उपासरों में पुस्तकों के साथ जगह जगह मिलता है ब्राह्मणों के यहां 'सर्वतोभद्र, 'लिंगतोभद्र' आदि
१. अजमेर के सेठ कल्याणमल ढड्डा के यहां हस्तलिखित प्राचीन जैन एवं अन्य पुस्तकों का बड़ा संग्रह है. उसमें ज्योतिषसंबंधी पुस्तकों तथा विषयों के संग्रह का २६२ पत्रों का एक पुस्तक है जिसके पत्रांक प्राचीन और नवीन शैली दोनों तरह से दिये हुए हैं. उसके प्रारंभ में दो पत्रों में उक्त संग्रह की पत्रांसहित विषयसूची भी लगी हुई है जो वि. सं. १४२६ (ई.स. १३७२ ) में उक्त संग्रह के लेखक श्रीलोकहिताचार्य ने ही तय्यार की थी. उक्त पुस्तक के प्रत्येक पत्र के मध्य के खाली छोड़े हुए हिस्से में बने हुए हिगलू के वृत्त में सुराख बना हुआ है और ऊपर नीचे की पाटियों में भी वहीं के ९३५ पत्र के एक दूसरे पुस्तक में, जिसमें भिन्न भिन्न पुस्तकों का संग्रह है और जो १४ वी शताब्दी के आस पास का लिखा हुआ प्रतीत होता है (संवत् नहीं दिया), इसी तरह सुराख बने हुए हैं.
गुजरात
सिंघ और खानदेश के सामग्री पुस्तक संग्रहों की सूचियां भूसर संग्रहीत माग १.
पू. ३८; पुस्तकसख्या १४७.
देखो, ऊपर पृ. २, दि. ४.
४. ज. प. सो. बंगा, जि. ६६, पृ. २१३-२६०, इन पुरसकों में से जो मध्य पशिक्षा की गुप्तकाल की लिपि में दे दे तो मध्य एशिया के ही लिखे हुए हैं, परंतु कितने एक जो भारतीय गुप्त लिपि के हैं ( सेट ७, संख्या ३ के a, b, c, c,f टुकड़े संस्था ५८, ११. ट १३, १५, १६ ) उनका भारतवर्ष से ही वहां पहुंचना संभव है जैसे कि होर्युजी के मट के ताड़पत्र के और मि० बायर के भीजपत्र के पुस्तक यहीं से गये हुए है. दूसरा किसने एक यूरोपियन विज्ञानों ने यूरोप की नई भारतवर्ष में भी कागजों का प्रचार मुसलमानों ने किया ऐसा अनुमान कर मध्य परिक्षा से मिले हुए भारतीय गुरु लिपि के पुस्तकों में से एक का भी यहां से यहां पहुंचना संदेहरहित नहीं माना परंतु थोड़े समय पूर्व डॉ० स ऑरल स्टाइन को चीनी सुरसान से चीथड़ों के बने हुए है. स. की दूरी शादी के जो काम मिले उनके आधार पर बनें ने
है कि यह संभव है कि लो (मुसमानों के बहुत पहिले हिंदुस्तान में कागज़ का प्रचार होगा परंतु उसका उपयोग कम होता था ( बा: पं. पू. २२६-३० ).
1. अजमरे के बीसपंथी असाय के बड़े धड़े के दिगंबर जैन मंदिर में २० से अधिक पट रक्खे हुए हैं, जिनपर ढाई डीप सीन लोक तेरा द्वीप, अंबू द्वीप आदि के सहित रंगीन चित्र है उनमें से किसने एक पुराने और ये
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