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________________ १४२ "C" प्राचीनलिपिमाल राशियों के लेख तो दूसरे से बना (ई ओर की खड़, लकीर हिनी ओर बनाने से ). के. ७९ (कुरानशियों के लेख ) ७०१ कुशनधियों के लेख ) ; दू. ७१ ( चत्रयों के सिके ): नो. ७१ ( वलभी के राजाओं के दानपत्र ) 「 प. दू. 9) ( कुशन वंशियों के लेख ) ; तो ११ ( चत्रों के सिक्के ); चौ. ७१ ( कुशनवंशियों के लेख); पां. ७१ ( गुप्तों के लेख ) ६- प. ७ ( नानाघाट का लेख ) : दू. ७१ ( कुशनवंशियों के लेख ) ; नी. ७१ (आंधों के नासिक के ) नौ ७५ ( राष्ट्रकूट दंतिवर्मन का दानपत्र ); पां. चीधे के ऊपर की अंधि को उलटा लिखने से; . ७६ ( कलचुरि कर्ण का लेख ) सा. ७६ (चौलुक्य त्रिलोचनपाल का दानपत्र): आ. ७३ ( अजमेर का लेख ). के अंक के सातवें और आठवें रूपों में " विशेष अंतर नहीं है २४ - लेखनसामग्रौ. ताड़पत्र. भाडपत्र ताड़ ( नाम, नाली ) नामक वृक्ष की दो भिन्न जातियों के पत्रे हैं. ताड़ के वृच दक्षिण में तथा समुद्रतट के प्रदेशों में विशेष रूप से और राजपूताना, पंजाब आदि में कम होते हैं. टिकाउ होने तथा धन्य में अद्भुत मिल आने के कारण प्रारंभिक काल से ही ताड़ के पत्रे पुस्तक आदि लिखने के काम में जाने थे. ताड़ के पत्रे बहुत बड़े बड़े होते हैं; उन्हें संधियों में से काट कर अधिक लंबी परंतु चीड़ाई में एक से चार इंच तक को ही, पट्टियां निकाली जाती हैं जिनमें से जितनी लंबाई का पत्रा बनाना हो उतना काट लेते हैं. पुस्तक लिखने के लिये जो ताड़पत्र काम में जाते थे उनको पहिले सुन्या देते थे, फिर उनको पानी में उबालते या भिगो रखते थे. पीछे उनको फिर सुखा कर शंख, कोड़े या चिकने पत्थर आदि से घोटते थे. मामूली कामों के जिये जो पत्रे पहिले काम में लाये जाते थे या अब लाये जाते हैं वे इस तरह तय्यार नहीं किये जाने. कश्मीर और पंजाब के कुछ अंश को छोड़ कर बहुधा सारे भारतवर्ष में ताड़पत्र का पहुत प्रचार था. पश्चिमी और उत्तरी भारतवाले उनपर स्पाही से लिखते थे परंतु दक्षिणवाले 3. बांडों की जातक कथाओं में 'पर' ( पत्र, पत्ता, पन्ना ) का उल्लेख कई जगह मिलता है (देखो, ऊपर पृ. ५, टिप्पण २२५ जो ताड़पत्र का ही सूचक होना चाहिये. हुएन्त्संग के जीवनचरित से, जो उसीके शिष्य थूली का बनाया हुआ है, एाया जाता है कि युद्ध के निर्माण के वर्ष में बौद्धों का जो पहिला संघ एकत्र हुआ ( देखो, ऊपर पृ. ४, त्रिपण उसमें बद्ध कर 'त्रिपिटक' तादपत्रों पर प्रथम लिखा गया था ( बील अनुवादित हुएन्त्संग का जीवनचरित, पृ. २१६ ९७ ) ऐसा कह सकते हैं कि भारतवर्ष में लिखने के लिये सबसे पहिले ताड़पत्र ही काम में श्राया हो और प्रारंभ में उसपर दक्षिणी शैली से लदे की नीव गोल मुंह की शलाका से अक्षर कुचरना ही प्रतीत होता है क्योंकि 'लिख्' धातु का मूल घर्म कुचरना रगड़ना या रेखा करना ही है- स्याही से लिखने के लिये 'लिए' धातु ( लीपना रंग पोतना ) अधिक उपयुक्त है. असंभव है कि ताम्रपत्रों पर स्याही से लिखने की उत्तरी प्रथा पीछे की हो. संस्कृत साहित्य के कई शब्द और मुहावरे सबसे प्राचीन पुस्तकों का ताड़पत्र पर ही होना सूचित करते हैं, जैसे कि एक विषयका पुस्तक 'ग्रंथ' या 'सूत्र' कहलाता था जो ताड़पत्रों के एक गांठ या एक डोरी से बंधे हुए होने का स्मरण दि लाता है. वृक्ष के पत्रों के संबंध में ही पुस्तक के विषयों का विभाग स्कंध, कांड, शाखा धनी आदि शब्दों से किया गया है. (पक्ष) और प ( पक्षा ) शब्द भी वृक्षों के पत्रों के ही स्मारक है. Aho! Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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