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धर्तमान लिपियों की उत्पनि
ब-इ.७: नी. ४४ ('ज्ञा' में ); चौ. ४८ ('ज्ञा' में). ट-द. ४५ ( वादामी का लेख): ती. दूसरे से बना; चौ. ४८; पां. ५१ (दोनेपुंडी का दानपत्र). ठ-द. ५१ ४--प. २ वालसी; द. नी. ४४ (मृगेशवर्मन का दानपत्र); चौ. ५० ह .ती. ४७ : चौ. ५०.
द. १२ ती. ४५; चौ. ४८; पां. ४६. न--इ.६:सी. ४७; ची. ४८. य--द.४४ ( काकृस्थवर्मन का दानपत्र);नी.४७. द-प. ० ( जोगड़ ); दू.७; नी. ४३ (पिकिर का दानपत्र ): श्री. ४८ : पां. ५०. ध- ६ (गौतमीपुत्र शातकर्णी के लेख ): नी. १३ चौ. ४६: पां. ५० न-द. ४३ ( उस्खुपल्लि का दानपत्र):ती. ४५ ( मंडलर का दानपख); चौ. ५०. प-दूह( वासिष्टीपुरख के लग्व): ती १५:ची. ५० : पां ५११ गजा गाणदेव का दानपन). फ.--१.८:ती. ४३: नौ ४५: पां. ५०. 4-- द. ४३ ( विष्णुगोपधर्मन का दानपत्र ): सी. ४३ (मिंहवर्मन का दानपत्र ); चौ. ४७. भ-इ. ४४ ( मृगशवर्मन का दानपव:ती. ४८ चौ. ४६ ; पां. ५०. म-द. ६; ती. ४४ ( मृगेशवर्मन का दानपत्र); चौ. ४६ : पां. ५०. य-द.७; ती. ४३, चौ. १५; पां. ४८. र-दू. ७; ती. ४३ चौ. ४७; पां. ४८. ल-दू.८: नी. ४४ मृगेशवर्मन् का दानपत्र); चौ. ४८. ३-.६ती . १३; चौ ४६; पां. ५०. श. प. २ ( स्वालसी): दू.७; ती ४४ ( मृगेशवर्मन का दानपत्र); चौ ४५; पां. ५० प प. ३ ( योमुंडी के 'र्ष में ); द.४४; ती. ४५ : चौ. ४०; पां. ५१. स-दू.१७ती . ४८. ह दृ.9; ती. १३ चौ. ५०: पां. ५१. ळ प. ७; दू ४७; ती. ५०; चो. ५१ ( बनपल्ली का दानपत्र).
वर्तमान कनड़ी लिपि का ''प्राचीन उसे नहीं बना किंतु 'अ' के साथ 'उ' की मात्रा जोड़ने से बना है. उसी उसे 'ऊ' यना है, ' का कोई प्राचीन रूप नहीं मिलता. मंभव है कि उपएणीपविजयधारणी के अंत की वर्णमाला के 'ऋ' जैसे ही अक्षर में विकार हो कर वह बना हो. 'ऐ' और 'मी उनके शचीन रूपों में ही बने हैं. 'ऐ लिपिपत्र ३८ के ऐसे, और 'मी' लिपिपत्र ४३ और ५० में मिलनेवाले'ओं से बना है.
लिपिपत्र ४ वा.
इस लिपिपत्र में ग्रंथ और मामिळ लिपियों की उत्पति दी गई है।
ग्रंथ लिपि की उत्पत्ति. ग्रंथ लिपि की उत्पत्ति में पहुया प्रत्येक अक्षर के प्रारंभ के कुछ रूप वे ही हैं जो कनड़ी लिपि की उत्पत्ति में दिये गये हैं, इस लिये ऐसे रूपों को छोड़ कर वाकी के स्पों ही का विवेचन किया जायगा.
श्र-सी. ५२ (मामल्लपुरम् के लेख); चो. ५४ ( उददिरम का दानपत्र); पां. ५६ इ-पां. ५३ (नंदिवर्मन् का दानपत्र).
.. वर्तमान तेलुगु लिपि कनड़ी मे हुन मिलती दुई है. जिन क्षगं में विशेष अंतर है येउ, रु. क, त, श और इहै. इनमें से उसके प्राचीन कप मचना है। विकासक्रम के लिय देखा. क्रमशः लिपिपत्र ४४,५७ और ५० मे मिलने चाहेक भक्षर के रूप). 'क' कनड़ी की उत्पत्ति में दिये हुए उक्त अक्षर के पांच रूप की प्राड़ी लकीर और नीचे के कृत को चलती कलम से कुछ अंतर के साथ लिखने से बना है. त' के बाई ग्रार के अंत में प्रधि और लगा दी है. 'श' पीर ''मी कमड़ी की उत्पति में दिये हुए उक अक्षरों के उपाय रूपों के विकार मात्र हैं.
Ahol Shrutgyanam