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________________ १३४ प्राचीनतिधिमासा. (प्रा) अखरों पर सिर की भाडी लकीर लगाना. (१) कलम को उठाये बिना अचर को पूरा लिखना. (ई) स्वरा से लिखना. लिपिपत्र ८२ से ८४ के उत्तरार्ध के प्रथम वंड तक में भारतवर्ष की ६ मुख्य लिपियों का विकासक्रम बतलाया गया है जिसमें प्रत्येक अचर के जो रूपांतर विषे हैं उनमें से अधिकतर लिपिपत्र १ से १४ तक से ही लिये गये हैं. सिपिपत्र ५२ वां. इस लिपिपत्र में वर्तमान नागरी और शारदा (करमौरी ) लिपियों की उत्पत्ति बनलाई गई है. नागरी लिपि की उत्पत्ति नागरी मादि जितनी लिपियों की उत्पत्ति लिपिपत्र २ से ८४ में दी है उनमें पहिले वर्तमान लिपि का प्रत्येक अक्षर दे कर उसके बाद = चिक्र दिया है. उसके पीछे अशोक के समय से लगा कर वर्तमान स्म पनने तक के सब रूपांतर दिये हैं. प्रत्येक रूप अनेक लेखादि में मिलता है और प्रत्येक लेखादि का पता देने से विस्तार पहुत बह जाता है प्रतएव केवल एक स्थल का पता दिया जायगा. -इसका पहिला रूप अशोक के गिरनार के पास के चटान के लेस (लिपिपत्र १) से लिया गया है (बहुधा प्रत्येक लिपि के प्रत्येक अचर का पहिला रूप उसी लेख से लिया गया है इसलिये भागे पहिले रूप का विवेचन केवल वहीं किया जायगा जहां वह रूप किसी दूसरे स्थल से लिया गया है), दुसरा रूप मथुरा के लेखों (सिपिपत्र ६) से लिया है जिसमें '' की बाई ओर के नीचे के अंश में दो बार कोण बनाये हैं. तीसरा रूप कोटा के लेख (लिपि पत्र २१) से है जिसमें 'अ' की बाई और के नीचे के अंश को अद्धवृत्त का सा रूप देकर मूल अक्षर से उसे विलग कर दिया है. गैषा रूप देवल के लेख (लिपिपत्र २५) से और पांचषां चीरवा के लेख (लिपिपत्र २७) से लिया गया है. इठा रूप वर्तमान नागरी है. (लिपिपत्र २से ८४ तक में प्रत्येक प्रदर की उत्पत्ति में अंतिम रूप वर्तमान अक्षर ही है इसलिये उसका भी भागे विवेचन न किया जायगा). इस प्रकार प्रत्येक बार की उत्पत्ति का विवेचन करने से विस्तार बह जाता है इस लिये मागे 'पहिला रूप', 'दूसरा रूप' आदि के लिये केवल उनकी सख्या के पहिले अक्षर 'प', 'ए' आदि लिखे जायंगे और उनके आगे जिस लिपिपत्र या लेख से वह रूप लिया है उसका अंक या नाम मात्र दिया जायगा और जहां बहुत ही आवश्यकता होगी वहीं विवेचन किया जापगा. प्रत्येक रूप में क्या अंतर पड़ा यह उक्त रूपों को परस्पर मिला कर देखने से पाठकों को मालुम हो जायगा अ-का यह रूप दक्षिण में लिखा जाता है. इसके पहिले तीन रूप पूर्व के ' के समान हैं; चौ. १८ (इसमें बाई ओर का नीचे का अर्धवृत्त सा अंश मूल अक्षर से मिल गया है): पां. गौधे का रूपांतर ही है. - ७ ( जयनाथ का दानपत्र-इसमें ऊपर की बिंदी के स्थान में सिर की साड़ी लकीर, और नीचे की दोनों विदियो को भीतर से खाली बनाया है);ती. २६ चौ. २०; पी. चौथे के समान. Aho I Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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