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________________ प्राचीनलिपिमाला. ऊपर वर्णन की हुई अक्षरों से अंक सूचित करने की शैलियों के अतिरिक्त दक्षिण में मलबार और तेलुगु प्रदेश में पुस्तकों के पत्रांक लिखने में एक और भी शैली प्रचलित थी जिसमें 'क' से 'ळ' तक के अक्षरों से क्रमशः १ से ३४ तक के अंक, फिर 'बारखड़ी' ( द्वादशावरी) के क्रम से 'का' से 'का' तक था की मात्रासहित व्यंजनों से क्रमशः ३५ से ६८ तक, जिसके बाद 'कि' से 'कि' तक के इ' की मात्रासहित व्यंजनों से ६६ से १०२ तक के और उनके पीछे के अंक 'ई', 'उ' आदि स्वरसहित व्यंजनों से प्रकट किये जाते थे'. यह शैली शिलालेख और ताम्रपत्रादि में नहीं मिलती. अक्षरों से अंक प्रकट करने की रीति आर्यभट (प्रथम) ने ही प्रचलित की हो ऐसा नहीं है क्योंकि उससे बहुत पूर्व भी उसके प्रचार का कुछ कुछ पता लगता है. पाणिनि के सूत्र १.३. ११ पर के कात्यायन के वार्तिक और कैट के दिये हुए उसके उदाहरण से पाया जाता है कि पाविनि की अष्टाध्यायी में अधिकार 'स्वरित' नामक वर्णात्मक चिह्नों से बतलाये गये थे और वे वर्ष पाणिनि केशवसूत्रों के क्रम के अनुसार क्रमशः सूत्रों की संख्या प्रकट करते थे अर्थात् उ=३ आदि .. ०१०२ ૨૦ लिपिपत्र ७१ वां. 2 इस लि पत्र में दो खंड हैं, जिनमें से पहिले में अशोक के लेखों', नानाघाट के लेख, कुरानवंशियों के सम के मधुरा आदि के लेखों, क्षत्रप और आंध्रवंशियों के समय के नासिक आदि के लेखों जों के सिकों, तथा जग्गयपेट के लेखों एवं शिवस्कंदवर्मन और जयवर्धन के दानपत्रों से१से तक मिलनेवाले प्राचीन शैली के अंक उद्धृत किये हैं. दूसरे खंड में गुप्तों तथा उम8 के समकालीन परिवाजक और उच्छकल्प के महाराजाओं आदि के लेख व दानपत्र, वाकाटक ", पल्लव तथा शालव या वंशियों" एवं वलभी के राजाओं" के दानपत्रों, तथा नेपाल के शिलालेखों से वे ही अंक उद्धये गये हैं. १. ब. सा. ई. पू. ८० वर्मा के कुछ हस्तलिखित पुस्तकों के पत्रांकों में 'क' से 'कः' तक से १ से १२ तक, 'ख' से ' तक से १३ से २०५. 'ग' से 'गः' तक से २५ से ३६ इत्यादि बारखड़ी के क्रम से अंक बतलाये हैं. सीलोन ( लंका ) के पुस्तकों के ऐसे ही पत्र में वर स्वरसहित जनों से भी अंक बतलाये हुए मिलते है जिसके 'क' से 'का' तक से क्रमशः १ से १६, 'स्व' से 'खः' तक से १७ से ३२ आदि श्रंक बतलाये जाते हैं और समाप्त हो जाते हैं तब फिर 'क', '२ का' आदि से आगे के अंक सूचित किये जाते है ( बू) ई. पे . ५.०७. लु व्यंजन ९. देखो, ऊपर पृ. ७ टिप्पण ५ और वे ई. लि. पृ. २२२. २. ऍ. ई जि. २. पृ. ४६० के पास का लेट. ई. ऍ जि. २२. पू. २६ के पास का प्लेट. लिपिपत्र ७९ से ७६ तक में जो i उप अंक दिये गये है ये बहुत भिन्न भिन्न पुस्तकों में छुपी हुई खाद की प्रतिकृतियों से लिये गये हैं इसलिये पत्र के टिप्पणी में हम बहुधा पत्रांक देंगे, जिससे पाठक उसके पास या उनके बीच के प्लेट समझ लेवें. * श्री. स. वे. ई जि. ५२ * पॅई; जि. १, पृ. ३८८-६३, जि. २, पृ. २००-२०६, ३६८ जि. १०, पृ. १०७. ई. एँ; जि. ३७, पृ. ६६. 4. आा. स. वे. ई जि. ४, प्लेट ५२-५५. पं. ६ जि. प. पू. ६०-६० ( प्लेट १-८ ). * बांसवाड़ा ज्य ( राजपूताना ) के सिरवाणिमा गांव से मिले हुए पश्चिमी क्षत्रपों के २४०० सिकौ, राजपूताना म्यूज़ियम ( अजमेर) रक्खे हुए १०० से अधिक सिक्कों से तथा रा; कॅ. कॉ. आ. क्ष; प्लेट १-१७. श्री. स. स. ई ; जि. १, प्लेट ६१०३. ऍ. ई. जि. १, पृ. ६: जि. ६, पृ. ४-६ ३१६-६, २. फ्ली. गु. ई. प्लेट १-४, ६, १२, १५, १६, ३६, ३८, ३६, ४१. ऍई जि. ६, पृ. ३४४. ए. फ्ली; गु. ई प्लेट २६, ३४. ११० ऍ. ई: जि. प. पू. १६२, २३५, जि. ६६ पृ. ५६. ई. : जि. ५, पृ. ५०-५२ १४४-३६, १७६-७७ १९. ऍ. इंजि. २, पृ. ३२१, जि. ५, पृ. ११३ जि. ११, पृ. ८३, १०६-१६ १७६. सी गु. ई फोट २४-२४. ई. पं जि. ५. पू. २०७८ जि. ६, पृ. १४-६: जि. ७, पृ. ६६-७८. शा. सः रि: ई. स. १६०२-३, पू. १३५. ज. संच. प. सो; जि. १२ पू. ३६३. १. पं. जि. ६ . १६४-७८. Aho! Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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