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________________ ११४ प्राचीमनिपिमालामिसर और भारत दोनों के प्राचीन अंकों में १००० तक के लिये २० चिक होने से केवल दो ही अनुमान हो सकते हैं कि या तो एक ने दूसरे का क्रम अपनाया हो अथवा दोनों ने अपने अपने अंक स्वतंत्र निर्माण किये हों. यदि पहिला भमुमान ठीक है तो यही मानना पड़ेगा कि भारतवासियों ने हिपरेटिक या डिमोटिक क्रम से अपना अंककम नहीं लिया क्योंकि जैसे भारतीय अंकों में १ से ३ तक के लिये प्रारंभ में क्रमशः १ से ३ माडी ( एक दूसरी से विलग) लकीरें थीं वैसे ही हिएरोग्लिफिक अंकों में १ से 8 तक के लिये क्रमशः १ से ६ (एक दूसरी से बिलग) सड़ी लकीरें थीं. पीछे से भारत की जन अंकसूचक लकीरों में वक्रता माकर २ और ३ की लकीरें एक दूसरी से मिल गई जिससे उनका एक एक संमिलित चिक बन कर नागरी के २और ३ के अंक बन गये. भरबों ने ई. स. की 8 वीं शताब्दी में भारत के अंक ग्रहण किये तो ये अंक ठीक नागरी (संमिलित) रूप में ही लिये. इसी प्रकार हिपरोग्लिफिक अंकों की २ से ४ तक की खड़ी लकीरें पीछे से परस्पर मिल कर २,३ और ४ के लिये नये (मिलवां) रूप बन गये, जो हिपरेटिक और उनसे निकले हुए रेमोटिक अंकों में मिलते हैं. यदि भारतवासियों ने अपने अंक हिएरेटिक या डिमोटिक से लिये होते तो उनमें २और ३के लिये एक दूसरी से विलग २और ३ माडी लकीरें न होती किंतु उनके लिये एक एक संमिक्षित पिडही होता. परंतु ऐसा न होना यही सिद्ध करता है कि भारतवासियों ने मिसरवालों से अपना अंकक्रम सर्वथा नहीं लिया. मतएष संभव है कि मिसरवालों ने भारत के अंककम को अपनाया हो; और उनके २, ३, ४,७,८,६, २०, ३०,४०, ५०, ६०,७०, ८० और .के अंकों को बांई तरफ से प्रारंभ कर दाहिनी ओर समास करने की रीति भी, जो उनकी लेखनशैली के बिलकुल विपरीत है. इसी अनुमान को पुष्ट करती है. दूसरी बात यह भी है कि डेमोटिक लिपि और उसके अंकों की प्राचीनता का पता मिसर के २५ वे राजवंश के समय भयोत है. स. पूर्व ७१५ से १५६ से पहिले नहीं चलता. मिसरवालों ने अपने भई हिएरोग्खिफि अंकक्रम को कब, कैसे और किन साधनों से हिएरेटिक क्रम में पलटा इसका भी कोई पता नहीं चलता, परंतुहिएरेटिक और डिमोटिक अंकों में विशेष अंतर न होना यही बतलाता है कि उनकी उत्पत्ति के बीच के समय का मंतर अधिक नहीं होगा. अशोक के समय अर्थात् ई. स. पूर्व की तीसरी शताब्दी में २०० के अंक के एक दूसरे से बिलकुल भिन्न ३ रूपों का मिलना यही प्रकट करता है कि ये भंक सुदीर्घकाल से चले माते होंगे. ऐसी दशा में यही मानना पड़ता है कि प्राचीन शैखी के भारतीय अंक भारतीय भायों के स्वतंत्र निर्माण किये हुए हैं. पृष्ठ ११३ पर अंकों का एक नक्शा दिया गया है जिसमें हिएरोग्लिफिक, फिनिशिमन्, हिपरेटि और डेमोटिक अंकों के साथ अशोक के लेखों, नानाघाट के लेख, एवं कुरानवंशियों के तथा खत्रपों और प्रांधों के लेखों में मिलनेवाले भारतीय प्राचीन शैली के अंक भी दिये है. उनका परस्पर मिलान करने से पाठकों को विदित हो जायगा कि हिरोखिफिक मादि विदेशी अंकों के साथ भारतीय अंकों की कहां तक समानता है. १ इस नशे में हसदी पलियां बनाई गई है, जिनमें से पहिली पंक्ति में वर्तमान नागरी के अंक दिये हैं। दूसरी पंक्ति में मिसर के हिपरोग्लिफिक अंक (प.नि जि.१७, पृ. ६२५); तीसरी में फिनिशिअन् अंक (ए. नि: जि. १७. पू. ६२५): सभी में हिपरटिए अंक (१ से ३०० तक प. वि जि. १७, पृ. ६२५ से और ४०० से ४००० तक .स संख्या ३, प्लेट ३३ गा में डेमोटिक अंक (1सा संख्या ३, र ३), छठी में अशोक के लेखों में मिलनेवाले अंक (लिपिपत्र, ७२, ७४); सातवीं में नामाचार लेखक (खिपिपत्र ७१, ७२.७४, ७५) आठवीं में कुरानवंशियों के लेखों में मिलनेबाले अंक (लिपिपा ७२, ७२), और नी में छत्रपों तथा आंध्रों के मासिक मादि के लेखों से अंक उत किये गये हैं (लिपिपत्र ७१,७२, ७७, ७). Ahol Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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