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________________ अंक १०६ बतलाने का प्रचार बना हुआ है; परंतु उनके देखने से पाया जाता है कि उनके लेखक सर्वधा प्राचीन क्रम को भूले हुए थे और 'मक्षिकास्थाने मक्षिका' की नाई केवल प्राचीन पुस्तकों के अनुसार पत्रांक लगा देते थे. शिलालेख और दानपत्रों में ई.स. की छठी शतान्दी के अंत के पास पाम तक तो केवल प्राचीन क्रम से ही अंक लिखे मिलते हैं. पहिले पहिल गर्जरवंशी किसी राजा के ताम्रपत्र के दूसरे पत्रे में, जो [कलचुरि ] संवत् ३४६ (ई.स. ५६५ ) का है, नवीन शली से अंक दिये हुए मिलते हैं अर्थात उसमें क्रमशः ३, ४ और ६ के अंक हैं. उक्त संवत् के पीले कहीं प्राचीन शैली से और कहीं नवीन शैली से अंक लिखे जाने लगे और १० वीं शताब्दी के मध्य तक प्राचीन शैली का प्रचार कुछ कुड़ रहा; फिर तो उठ ही गया और नवीन शैली से ही अंक लिखे जाने लगे. उसके पीछे का केवल एक ही लेख एसा मिला है, जो नेपाल के मानदेव के समय का [नेवार ] सं. २५६ (ई.स.११३६ ) का है और जिसमें अंक प्राचीन शैली से दिये हैं. भारनरर्ष में यंकों की यह प्राचीन शैली कब से प्रचलित हुई इसका पता नहीं चलता परंतु अशोक के सिद्धापुर, सहस्राम और रूपनाथ के लेखों में इस शैली के २००,५० और ६ के अंक मिलते हैं जिनमें से २०० का अंक' तीनों लेखों में बिलकुल ही भिन्न प्रकार का है और ५० तथा ६ के दो दो प्रकार के रूप मिलने हैं. २०० के भिन्न भिन्न तीन रूपों से यही कहा जा सकता है कि ई. स. पूर्व की तीसरी शताब्दी में तो अंकों की यह शैली कोई नवीन बात नहीं किंतु सुदीर्घ काल से चली पाती रही होगी यदि ऐसा न होता तो अशोक के लेतों में २०० के अंक के एक दूसरे से बिलकुल ही भिन्न तीन रूप सर्बधा न मिलने अशोक से पूर्व उक्त अंकों के चिह कैसे थे और किन किन परिवर्तनों के बाद उन रूपों में परिणत हए इस विषय में कहने के लिये श्रम तक कोई साध उपलब्ध नहीं हुआ. कई विद्वानों ने जैसे ब्राह्मी अक्षरों की उत्पत्ति के विषय में भिन्न भिन्न कल्पनाएं की हैं वैसे ही इन प्राचीन शैली के अंकों की उत्पत्ति के विषय में भी की हैं जिनका सारांश नीचे लिखा जाता है प्रथम ई.स. १८३८ में जेम्स प्रिन्सेप ने यह अनुमान किया कि ये अंक उनके सूचक शब्दों के प्रथम अक्षर हैं, जिसको बोके श्रादि कितने एक यूरोपियन विद्वानों ने स्वीकार भी किया. ३. यद्यपि शिलालेखो और दानपत्रों में प्राचीन शैनी के अंको का प्रनार १०वीं शताब्दी के मध्य तक कुछ न कुछ नाया जाता है तो भी तापनी के लेखक ई. स. की आठवीं शताब्दी से ही उस शैला के अंकों के लिखने में गलतियां करने लग गये थे बलभी के राजा शीलादिस्य (छठे) के गुप्त सं.४४र के दानपत्र में १०० के साथ जुड़नेवाले ४ के अंक के स्थान मे ४० का अंक जोड़ दिया है। ई.प: जि.६ पृ.१६ के पास का प्लेट), और पूर्वी गंगावंशी राजा देवंद्रवर्मन् के गांगेय सं. १८३ के कानपत्र में 20 के स्थान पर का और ३ के स्थान पर ३० का चिन ('लो', 'ल'काघसीट रूप) लिखा है और २०के लिये के आगे बिंदी लगा कर एक ही दानपत्र में प्राचीन और नवीन शैली का मिथ्रण भी कर दिखाया है। एँ : जि. ३. पृ. १३३ के पास का लेट). २. तामिळ लिपि में अब तक अंक प्राचीन शैली में ही हिले जाते हैं, नवीन शैली के अंकों का प्रचार अब होने लगा है. थोड़े समय पूर्व के छपे हुए पुस्तकों में पक प्राचीन शैली से ही दिये हुए मिलते हैं परंतु अब नवीन शैली से देने लगे है. तामिळ अंकों के लिये देखो, लिपिपत्र ८९ में तामिळ लिपि. * अशोक के लेखों में मिलनेवाले २०० के अंक के भिन्न भिन्न ३ चिनों के लिये देखो लिपिपत्र ७४ का पूर्वार्द्ध. उन चिहनों में से दूसरा सहक्षाम के लेन से है. करीब 5०० वर्ष पीछे उसीका किंचित् बदला हुधा रूप फिर मथुरा से मिली हुई गुप्त सं. १३० (ई.स. ५४६) की एक पौर मुर्सि के नीचे के लेख (मी; गु. मेट४० D) में मिलता है। बीच में कहीं नहीं मिलता. कभी कभी लेखकों को अक्षरों या अंकों के प्राचीन चिह्नों की स्मृति रहने का यह अद्भुत उदाहरण है. Ahol Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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