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________________ १०० प्राचीनलिपिमाला अंतर नहीं है(देखो, 'त का चौथा रूप, 'द का दूसरा रूप और 'न' का तीसरा रूप ). कहीं कहीं 'म' के नीचे आडी लकीर या बिंदी और 'ह' के नीचे भी विंटी लगी मिलती है 'खें के साथ के रेफ को अचर के नीचे लगाया है परंतु उसको ग्रंथि का सा रूप देकर मंयुक्ताक्षर में आनेवाले दूसरे से भिन्न बतलाने का यत्न पाया जाता है और शक, पार्थिअन आदि के सिबों में यह भेद अधिक स्पष्ट किया हया मिलता है (देखो 4), शक पार्थिन प्रादि के सिकों से जो मुख्य मुख्य अक्षर ही लिये गये हैं उनमें कई अक्षरों की लकीरों के प्रारंम या अंत में अंथियां लगाई हैं के संभव है कि, अक्षरों में सुंदरता लाने के लिये ही हों. 'फ की ऊपर की दाहिनी ओर की लकीर नीचे की ओर नहीं किंतु ऊपर की तरफ बढ़ाई है. लिपिपन्न ६६वें की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांमर महरजम प्रमिकस हेलिययस. महरजस प्रमिकम जयपरस अर्खेबियस. महरजम बतरस मेमद्रस. महरजम अपडितस फिलसिनस. महरजस पत्तरस जयंसस हिपुस्वतस. मदरअस चतरस हेरमयम रजतिरजस महतस मोअस. महरजस रजरजस महतस अयस. महरजस रबरजस महतस अयिखिषस. लिपिपत्र ६७ यां. यह लिपिपत्र दाप राजुल के समय के मथुरा से मिले हुए सिंहाकृतिवाले स्तंभसिरे के लेखों, तक्षशिला से मिले हुए क्षत्रप पतिक के तानलेव' और वहीं से मिले हुए एक पत्थर के पानपर के लेख से तय्यार किया गया है. इस लिपिपत्र के अक्षरों में 'उ की मात्रा का रूप प्रथि बनाया है और 'न' तथा 'ए' में बहधा स्पष्ट अंतर नहीं पाया जाता. मथुरा के लेबों में कहीं कहीं 'त , 'न' तथा 'र' में भी स्पष्ट अंतर नहीं है. लिपिपल ३७वे की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर सिरिसेम सिहरबिनेन च भतरेहि सखशिखर अयं युवो प्रलियवितो सबबुधन पुयर' तखशिलये मगरे उतरेड प्रचु देशो लेम नम अत्र 'शे पतिको अप्रतिठवित । मूल पंक्तियां प्रीक भादि राजाओं के सिकों पर के लेलों से हैं. ३. ए.ई.: जि. ६. पृष्ठ १३६ और १४६ के बीच के सेटों से. ..... जि.५, पृष्ठ ४६ के पास के लेट से. इस ताम्रलेख में अक्षर रेखारूप में नहीं सुदे है किंतु विदियो से बनाये हैं. राजपूताने में ई. स. की १४ वी शताब्दी के बाद के कुछ ताम्रपत्र ऐसे ही बिदियों से खुदे हुए भी देखने * माये जिनमें से सब से पिछला २० वर्ष पहिले का है. की तांबे और पीतल के बरतनों पर उनके मालिको के नाम इसी नर्विदियों से खरे हुए भी देखने पाते हैं. ताम्रपत्रादि तुधा सुनार या लुहार खोदते हैं. उनमें जो अच्छे कारीगर होते है सोजैसे अन्दर स्याही से लिखे होते है वैसे ही खोद लेते हैं परंतु जो अच्छे कारीगर नहीं होते या शमीण होते है ये ही बहुधा स्याही से खिले हुए अक्षरों पर विदियां बना देते हैं. यह त्रुटि खोदनेवाले की कारीगरी की ही है. ४. पॅ. जि. पृष्ट २६६ के पास के लेट से. ५. 'सिविखेन' से लगाकर 'पुयए' तक के लेख में तीन बार 'ण' या 'न' आया है जिसको दोनों ही सरह पद असते . स्पोकि उस समय के मासपास के खरोष्ठी लिपि के कितने एक लेखों में 'ग' और 'य'मे स्पष्ट मेव नहीं पाया जाता. .. महां तकका लेख तक्षशिला के पत्थर के पात्र से है. .. वहां से तमाकर अंत तक का लेस तक्षशिला से मिले हुए ताम्रलेख से लिया है. Aho! Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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