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________________ प्राचीनलिपिमाला. ओर मुड़ कर नीचे को झुकी हुई रहती है (देखो, लिपिपत्र ३६-४८, ५२-५७) और भ, भा, ई.कम और र अक्षरों की खड़ी लकीरों तथा बहुधा उ, ऊ और ऋकी मात्राओं के नीचे के अंश बाई तरफ मुड़ कर घुमाव के साथ ऊपर की ओर बढ़े हुए रहते हैं (देखो, लिपिपत्र ३६-४, ५२-५८). यही ऊपर की ओर बढ़ा हुआ अंश समय के साथ और ऊपर बढ़ कर सिर तक भी पहुंचने लगा जिससे तेलुगु-कनडी तथा ग्रंथ लिपियों में श्र, पा, ई, क, भ और रकी आकृतियां मूल अक्षरों से पिलकुल विलक्षण हो गई. इसके अतिरिक्त दक्षिण के लेखक अपने अक्षरों में सुंदरता लाने के विचार से खड़ी और बाड़ी लकीरों को बक्र या खमदार बनाने लगे जिससे ऊपर की सीधी माड़ी लकीर की प्राकृति बहुधा , नीचे की सीधी पाड़ी लकीर की ~ और सीधी खड़ी लकीर की आकृति ऐसी बनने लगी तथा इन लकीरों के प्रारंभ, मध्य या अंत में कहीं कहीं ग्रंथियां भी बनाई जाने लगी. इन्हीं कारणों, तथा कितने एक अक्षरों को चलती कलम से पूरा लिखने, से दक्षिण की लिपियों के वर्तमान अक्षर उनके मूल ब्राह्मी अक्षरों से बहुत ही विलक्षण बन गये लिपिपत्र ३६ बां. यह लि पेपत्र मंदसोर से मिले हुए राजा नरवर्मन् के समय के मालद (विक्रम ) संवत् ४६१ (ई. स. ४०४. ) और वहीं से मिले हुए कुमारगुप्त के समय के मालव (विक्रम ) संवत् ५२६ (ई. स. ४७२) के लेखों से तय्यार किया गया है. नरवर्मन् के समय के लेख में 'य' प्राचीन और नवीन (मागरी का सा) दोनों तरह का मिलता है. दचिणी शैली के अन्य लेखों में 'य' का सरा ( नागरी का सा) रूप केवल संयुक्ताक्षर में, जहां 'य' दूसरा अक्षर होता है, प्रयुक्त होता है परंतु यह लेख उत्तरी भारत का है, इसलिए इसमें वैसे रूप का भी केवल 'य' के स्थान में प्रयोग 'र' का दूसरा रूप 'उ' की मात्रा सहित 'र' को चलती कलम से लिखने से बना है, शुद्ध रीति से लिखा हुश्रा रूप तो पहिला ही है. ' में दो बिंदियों के ऊपर की सीधी बाडी लकीर को वक्र रेखा बना दिया है. लिपिपत्र ३६ में की मूल पंक्तियों का नागरी अक्षरांतर सिद्धम् सहसशिरसे तस्मै पुरुषायामितात्मने यतुस्समुद्रपर्यवतोयनिद्रालवे नमः औम्मलिषगवासाने प्रशले कृतसशिने स्कषष्टयधिक प्राप्ते समाशतचतुष्टय(ये) प्रारक(ट्का)ले शुभे प्राप्ते मनस्तुष्टिकरे मृणाम् मधे(हे) प्रहने शास्त्र कृष्णस्यानुमते सदा मिष्यन्नवीडियवसा लिपिपत्र ३७ वा. यह दानपत्र बलभी के राजा धुवसेन' के गुरु सं. २१० (ई. स. ५३६ ) के और धरसेन (दूसरे) के गुप्त सं. २५२ (ई. स. ६७१ ) के दानपत्रों से तय्यार किया गया है, धरसेन (दूसरे) के दानपत्र में अनुस्वार और विसर्ग की बिंदियों के स्थान में साड़ी लकीरें मनाई - १. मेरे विद्वान् मित्र देवदत्त रामकृप्या भंडारकर की मेजी हुक खेल की छाप से. १. पती गु. मेट ११ से. ये मूल पहिया नरवर्मन के मंदसोर के खेल से हैं, .. . जि.११, पृ. १५० के पास के पेट से. .. जि.८, पृ. ३०२ और ३० के बीच के मेटोले. Aho 1 Shrutgyanam
SR No.009672
Book TitleBharatiya Prachin Lipimala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar H Oza
PublisherMunshiram Manoharlal Publisher's Pvt Ltd New Delhi
Publication Year1971
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size8 MB
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