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अध्याय - ५
प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥१६॥ [प्रदीपवत् ] दीप के प्रकाश की भांति [प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां ] प्रदेशों के संकोच और विस्तार के द्वारा जीव लोकाकाश के असंख्यातादिक भागों में रहता है।
(It is possible) by the contraction and expansion of the space-points (of a soul) as in the case of the light of a lamp.
गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः ॥१७॥ [गतिस्थित्युपग्रहौ ] स्वयमेव गमन तथा स्थिति को प्राप्त हुए जीव और पुद्गलों के गमन तथा ठहरने में जो सहायक है सो [धर्माधर्मयोः उपकारः] क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार है।
The functions of the media of motion and rest are to assist motion and rest respectively.
आकाशस्यावगाहः ॥१८॥
[अवगाहः ] समस्त द्रव्यों को अवकाश-स्थान देना यह [आकाशस्य] आकाश का उपकार है।
(The function) of space (is to) provide accommodation.
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