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भूमिका तथा ऋतु, सूर्योदय, सूर्यास्त, पर्वत, नदी, जल-क्रीड़ा आदि का वर्णन विस्तार से फेया गया है। पूरे चतुर्थ सर्ग में शरद्वर्णन है ! पाँचवें में हिमालय-वर्णन है तथा सप्तम, अष्ठम, नवम और दशम सर्ग अप्सरा-विहार तथा अर्जुन की तपस्या-भङ्ग की चेष्टाओं से भरे पड़े हैं। महाकाव्य के अन्य भी सभी लक्षण हसमें स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं ।
महाकवि भारवि और उनके काव्य की समीक्षा कवियों में भारवि का स्थान-महाकाब्यकारों में कालिदास और अश्वघोष के बाद भारवि का नाम लिया जाता है । संभवतः कालिदास से उतरकर उन्हीं का स्थान है । ऐहोल शिलालेख ६३४ ई. के "कविताश्रित-कालिदास-भारवि कीर्तिः" में कीर्तिशाली कवियों में दो के नाम साथ-साथ लिए गये हैं। एक कालिदास का
और दूसरा भारवि का। इससे ज्ञात होता है कि आज से १३४४ वर्ष पूर्व भी मारवि को संस्कृत का मूर्धन्य कवि माना जाता था ।
महाकवि भारवि निःसन्देह एक उच्चकोटि के कवि हैं। भारवि की कीर्ति उनके एक मात्र महाकाव्य-किरातार्जुनीय पर आधारित है | केवल एक ग्रन्थ के द्वारा भारवि ने संस्कृत कवियों में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया है। संस्कृत महाकाव्यों की 'बृहत्त्रयी' (किरातार्जुनीय, शिशुपालवध और नैषधीय चरित) में किरातार्जुनीय का प्रमुख स्थान है। इस महाकाव्य में भारवि ने काव्य के सभी गुणों का सन्निवेश किया है। उदात्त एवं सजीव वर्णन, कमनीय कल्पनायें, अर्थ गौरव, हृदयग्राही शब्द-योजना, कोमलकान्त पदावली, हृदयस्पर्शी एवं रोचक संवाद, अलंकारों का चमत्कारात्मक प्रयोग, कलात्मक काव्य-शैली, मनोहर प्रकृति-चित्रण, रसपेशलता, सजीव चरित्र चित्रण इत्यादि महनीय गुणों ने भारवि को कवियों में अत्यन्त उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित किया है। भारवि ने व्याकरण, वेदान्त, न्याय, धर्म, राजनीति, कामशास्त्र पुराण, इतिहाज आदि ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में अपनी निपुणता का प्रदर्शन किया है । अधोलिखित समीक्षा से भारवि के काव्य की सभी विशेषताओं का पूर्ण रूप से ज्ञान हो जायेगा