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________________ किरातार्जुनीयम् श-चिराय= दीर्घ (चिर) काल से, बहुत समय से । तस्मिन् =उस (दुर्योधन) के । क्षेम = (प्रजाओं का) फल्याण । वितन्वति (सति) = फरते (फैलाते) रहने पर, सम्पादन करते रहने पर । अदेवमातृका = पर्जन्य (बादल, वृष्टि) के ऊपर आश्रित ( आधारित, अबलम्बित) न रहने वाला, नहरों के जल के द्वारा सींचा जाने वाला । कुरवः = कुरु देश (जनपद)। अकृष्टपच्या इव = जुनाई (कर्षण) के बिना ही पकी हुई सी। कृषीवलैः = किसानों के द्वारा । सुखेन = सुखपूर्वक, आसानी से, परिश्रम के बिना । लभ्याः = प्राप्त होने वाली। सस्यसम्पदः = फसलों की सम्पत्तियों (समृद्धि ) को । द्धतः = धारण करते हुए । चकासति = सुशोभित हो रहा है । ___ अ०-बहुत समय से उस ( दुर्योधन ) के द्वारा (प्रजाओं का) कल्याणा करते रहने पर वर्षा के ऊपर आश्रित न रहने वाला (नहरों के जल के द्वारा सींचा. जाने वाला) कुरुदेश मानो बिना जुताई के ही पकी हुई (अथवा जुताई के बिना ही पकी हुई सी) किसानों के द्वारा आसानी से प्राप्त होने वाली फसलों की समृद्धि को धारण करता हुआ सुशोभित हो रहा है। व्या०-प्रजापालनतत्परः दुर्योधनः अन्नवृद्धथयं राज्ये सर्वत्र कृत्रिमनदीप्रभृतीनां भूमिसेचनसाधनानां निर्माणं कारयति । एतेषां साधनानां साहाय्येन कुरुदेशः वर्पाजलं विनाऽपि प्रचुरान्नसम्पन्नः वर्तते । कृषिकर्म अतीव सुखसाध्यं लाभप्रदं च विद्यते । दुर्योधनस्य राज्ये ये कृषकाः सन्ति ते प्रयासेन विनैव स्वयं जातानीव सस्यानि लभन्ते । अनेन ते समृद्धाः वर्तन्ते । अन्नप्राचुर्यात् प्रजासु, सन्तोषः वर्तते । प्रजानुरल्जनात् सः दुर्योधनः सुखेन न वश्यः इत्यर्थः । स०-देवः (पर्जन्यः) माता (मातृवत् उपकारिका) येषां ते देवमातृकाः (बहु०)। न देवामातृकाः अदेवमातृकाः (नज समास)। कृष्टे पच्यन्ते इति. कृष्टपच्याः ( उपपद समास), न कृष्टपच्याः अकृष्टपच्याः (नत्र, समास)। सत्यानां सम्पदः सत्यतम्पदः (तत्पु०) अथवा सस्यानि एव सम्पदः (कर्मधा०) । व्या०-चिराय-अव्यय । वितन्वति-वि+तन् + शतृ+ सप्तमी एकवचन, तस्मिन् का विशेषण, भावे सप्तमी। कषीवलैः कृषि+वलच , वलच प्रत्यय
SR No.009642
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibhar Mahakavi, Virendra Varma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year1978
Total Pages126
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size81 MB
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