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भूमिका रुप में शिव जी के परस्पर युद्ध का वर्णन है। इन दोनों के इस युद्ध के मुख्य होने के कारण ही इस ग्रन्थ का नाम किरातार्जुनीय पड़ा है । किरातश्च अर्जुनश्च किरातार्जुनौ (द्वन्द्वः), किरातार्जुनौ अधिकृत्य कृतं काव्यं किरातार्जुनीयम् । शिशुक्रन्द"" सूत्र से छ प्रत्यय हुआ-किरातार्जुन + छ । 'आयनेयी...' सूत्र से छ को ईय् आदेश होकर 'किरातार्जुनीय' शब्द की निष्पत्ति हुई।
किरातार्जुनीय का कथानक इस प्रकार है | द्यूत क्रीड़ा में हार जाने पर पाण्डव अपनी पत्नी के साथ द्वैतवन में निवास करते हैं। युधिष्ठिर एक वनेचर को दुर्योधन के शासन का समाचार लाने के लिए भेजते हैं। वनेचर पूरी जानकारी करके आता है और युधिष्ठिर को दुर्योधन के सुव्यवस्थित शासन का समाचार देता है। द्रौपदी कटु शब्दों में युधिष्ठिर के कायरपन की निन्दा करती है तथा युद्ध के लिए उत्तेजित करती है । भीम द्रौपदी की बातों का समर्थन करते है किन्तु धर्मराज प्रतिज्ञा तोड़कर युद्ध करने की बात को स्वीकार नहीं करते । इसी समय भगवान् वेदव्यास जी वहाँ आ जाते हैं। वे अर्जुन को दिव्यास्त्र पाने के लिए इन्द्रकील पर्वत पर इन्द्र की तपस्या करने के लिए भेजते हैं। अर्जुन इन्द्रकील पर्वत पर कठिन तपस्या करने जाते हैं। इन्द्र अर्जुन की तपस्या भङ्ग करने के हेतु अप्सराओं को भेजते हैं, परन्तु अर्जुन अपने व्रत से विचलित नहीं होते। अर्जुन की तपस्या को देखने के लिए मानुष वेशधारी इन्द्र स्वयं आते हैं तथा शिव की तपस्या का उपदेश देते हैं। अर्जुन पुनः कठोर तपस्या करते हैं । मूक दानव अर्जुन को मारने के लिए मायावी वराह रूप को धारण करता है । शिव जी अर्जुन की तपस्या की परीक्षा के हेतु किरात का वेश धारण कर लेते हैं। किरात और अर्जुन दोनों वराह पर एक ही साथ बाण छोड़ते हैं। शिव जी का बाण वराह को समाप्त कर पृथ्वी में प्रविष्ट हो जाता है। दूसरे बाण के लिए वादविवाद होता है जो युद्ध के रूप में परिवर्तित हो जाता है। कभी अर्जुन की विजय होती है तो कभी किरात की। बाद में दोनों में बाहुयुद्ध होता है। अर्जुन की वीरता से प्रसन्न होकर शिव जी अपने वास्तविक रूप में प्रकट होते हैं और अर्जुन को अपना पाशुपत अस्त्र देकर उसकी अभिलाषा को पूरी करते हैं ।