________________
३३
प्रथमः सर्गः श०-यः = जो। अधिपं = राजा (स्वामी, अधिपति ) को । साधु = हितकर, कल्याणप्रट | न शास्ति = उपदेश नहीं करता है। सः वह (हित का उपदेश न करने वाला)। किंसखा = कुमित्र, कुन्सित (निन्दित) मित्र (मन्त्री, अमात्य इत्यादि) है। यः = जो । हितात् = हि कारक (हितैषी, हित का उपदेश करने वाले) व्यक्ति से | न संशृणुते = (हितकारी उपदेश फो) नहीं सुनता । सः = वह । किंप्रभुः = कुस्वामी, कुलित (निन्दित) त्वामी (राजा) है। हि = क्योंकि । नृपेपु अमात्यपु च = राजाओं और अमात्यों (मन्त्रियों, सचिों ) के (न)। अनुकूलेपु= (परत्पर) अनुकूल (अनुरक्त, अनुगगयुन, एक मन वाले) होने पर । सर्वसम्पदः = सभी (सभी प्रकार की) सम्पदायें (सम्पत्तियाँ)। सदा = सर्वदा । रतिं कुर्वते = अनुराग करती हैं (निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होती हैं)।
अनु -जो राजा (स्वामी, अधिपति) को हितकारी उपदेश नहीं करता वह (हित का उपदेश न करने वाला) कुमित्र (निन्दित मित्र, कुत्सित अमान्य) है। जो हितकारक व्यक्ति से (उपदेश) नहीं सुनता वह कुस्वामी (निन्दित राजा) हैं। क्योंकि राजाओं और अमात्यों (मन्त्री इत्यादि सेवकों) के परस्पर अनुकूल (अनुरक्त, एकमत) होने पर समस्त सम्पत्तियाँ (सम्पदायें) सर्वदा अनुराग करती हैं। [अर्थात् राजा की समस्त सम्पत्तियाँ (राजलक्ष्मी) निरन्तर वृद्धि को प्राप्त करती रहती हैं, कभी भी राजा को छोड़कर शत्रुओं के पास नहीं जाती हैं |
सं० व्या-नृपाय हितोपदेशकरणं भृत्याना (अमात्यादीनां) धर्मः, अमात्योपदेशस्य श्रवणं च नृपस्य धर्मः इति प्रतिपाद्यते अस्मिन् श्लोके । यः सखा
सचिवः, मन्त्री) नृपाय हितकरं वचनं नोपदिशति स कुत्सितः (निन्द्यः) सखा (सचिवः, मन्त्री) अस्ति । तथैव यः नृपः हितोपदेष्टुः सचिवात् हितकर वचनं न शृणोति (हितोपदेशस्य अवहेलनां करोति) स. कुत्सितः नृपः अस्ति । सर्वथा सचिवेन वक्तव्यं श्रोतव्यं च स्वामिना इत्यर्थः । एवं च राजमन्त्रिणोरैफमत्यं स्यात् । नृपेषु (गजसु) सचिवेषु (अमात्येषु)च परस्परमनुरक्तेषु सत्सु समस्ताः सम्पत्तयः निरन्तरमनुरागं कुर्वन्ति-राज