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________________ ११६ किरावार्जुनीयम् स-निरस्त: विक्रमः येन सः निरस्तविक्रमः (बहु० ) । लक्ष्म्याः पतिः लक्ष्मीपतिः (षष्ठी तत्पु०), लक्ष्मीपतेः लक्ष्म लक्ष्मीपतिलक्ष्म (षष्ठी तत्पु०)। जटायाः धरः चटाधरः (षष्ठी तत्पु० )। व्या-साध्यते अनेन इति साधनम्-साध् + ल्युट्। पर्येषि-परि+ इ+ लट, मध्यमपुरुष, एकवचन । विहाय-वि+हा+क्त्वा-ल्यप् । जुहुधि-हु+लोट , मध्यमपुरुष, एकवचन । टि०-(१) अनेक प्रकार के अपमानों को सहकर भी जब प्रतीकार के हेतु शत्रु पर हथियार उठाना ही नहीं, नब शान्तिपूर्ण जीवन ही बिताना है तब धनुष धारण करने की आवश्यकता ही क्या है। अतः धनुष का परित्याग करके अग्नि में हवन करते हुए तपोवन में रहना उचित है। वस्तुत: 'धनुष का परित्याग करो' यह कहकर द्रौपदी व्यङ्गयपूर्वक युधिष्ठिर को शत्रु के विनाश के लिए धनुष-धारण करने के लिए प्रेरित कर रही है। (२) द्रौपदी की वाक्पटुता की जितनी भी प्रशंसा की जाये वह थोड़ी ही है (३) छेकानुप्रास । घण्टापथ-अथेति । अथ पक्षान्तरे निरस्तविक्रमः सन् चिराय चिरकालेनापि क्षमा शान्तिमेव 'क्षितिक्षान्त्योः क्षमा' इत्यमरः । सुखस्य साधनं पद्येषि अवगच्छसि तर्हि लक्ष्मीपतिलक्ष्म राजचिह्न कार्मुकं विहाय । धरतीति धरः । पचाद्यच् । जटानां धरो जटाधरः सन् इह वने पावकं जुहुधि । पावके होमं कुर्वित्यर्थः। अधिकरणे कर्मत्वोपचारः । विरक्तस्य किं धनुषेत्यर्थः । 'हुझल्भ्यो हेधिः ॥ ४४ ॥ न समयपरिरक्षणं क्षमं ते निकृतिपरेषु परेषु भूरिधाम्नः। अरिषु हि विजयार्थिनः क्षितीशा विदधति सोपधिसन्धिदूषणानि ॥४५॥ ___ अ०-परेषु निकृतिपरेषु (सत्सु) भूरिधाम्नः ते समयपरिरक्षणं न क्षमम् । हि विजयार्थिनः क्षितीशाः अरिषु सोपधि सन्धिदूषणानि विदधति । . श-परेषु निकृतिपरेषु (सत्सु) = शत्रुओं (= दुर्योधन इत्यादि कौरवों) के ( तुम्हारे ) अपकार (निकृति ) में लगे रहने पर। भूरिधाम्नः अत्यन्त तेजस्वी (प्रभूत पराक्रम वाले, शत्रओं का विनाश करने में समर्थ)।
SR No.009642
Book TitleKiratarjuniyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVibhar Mahakavi, Virendra Varma
PublisherJamuna Pathak Varanasi
Publication Year1978
Total Pages126
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size81 MB
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