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शांत लगता है? वैसे जब अनन्तानुबंधी कषाय सोए हुए होते हैं तब मिथ्यात्वी मनुष्य भी शांत दिखता है । वास्तव में वह साँप जैसा ही होता है | ये अनन्तानुबंधी कषाय जीवात्मा को दुर्गति में ले जाते हैं। कषायों की आग जलती रहती है, शांत ही नहीं होती। मिथ्यात्व, कषायों की आग में घी डालता रहता है। ये कषाय, जीव को सम्यक्त्व नहीं पाने देते हैं।
मिथ्यात्व दूर होता है तब कषाय 'अनन्तानुबंधी' नहीं रहते, वे कषाय अप्रत्याख्यानावरण' बन जाते हैं, यानी कषायों की तीव्रता कम होती है। मिथ्यात्व दूर होता है, सम्यक्त्व-सम्यग दर्शन का गुण प्रगट होता है...। यह सम्यक्त्व, जीवात्मा को श्रद्धावान बनाता है, सच्चे परमात्म तत्त्व की पहचान करवाता है, सच्चे गुरु तत्त्व की पहचान करवाता है और सच्चे धर्म का ज्ञान होने देता है। इस वजह से जीव के कषाय, अनंतानुबंधी की अपेक्षा मंद हैं। अप्रत्याख्यानावरण कषायों की काल मर्यादा, ज्यादा से ज्यादा एक वर्ष की होती है। यानी एक वर्ष के भीतर ये कषाय उपशांत हो जाते हैं। पुनः उदय में आ सकते हैं... परंतु ज्यादा से ज्यादा एक वर्ष के लिए!
अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होता है, तब थोड़ा सा भी प्रत्याख्यान मनुष्य नहीं कर पाता है। यानी तप और व्रत वह नहीं कर सकता है। ये अप्रत्याख्यान कषाय भी तीव्र होते हैं।
- तीसरा प्रकार है प्रत्याख्यानावरण कषायों का! ये कषाय जब उदय में होते हैं, मनुष्य सभी पापों का त्याग कर दीक्षा नहीं ले सकता है। चारित्र धर्म का स्वीकार नहीं करने देते। प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ ज्यादा से ज्यादा चार महीने टिकते हैं, बाद में उपशांत हो जाते हैं। ये कषाय श्रावकजीवन के व्रत-नियमों में अवरोध नहीं करते हैं।
- चौथा प्रकार है संज्वलन कषायों का । ये कषाय साधु पुरुषों को होते हैं जब कोई उपसर्ग (कष्ट) आता है, परिषह (भूख-प्यास वगैरह) आते हैं तब थोड़े से कषाय उदय में आते हैं, वे संज्वलन कषाय कहे जाते हैं। ये कषाय ज्यादा से ज्यादा १५ दिन तक निरंतर उदित रह सकते हैं, बाद में उपशांत हो जाते हैं। ये कषाय श्रमण-श्रमणी को शुक्लध्यान नहीं करने देते हैं। धर्मध्यान में भी विक्षेप करते हैं। विशुद्धतर चारित्र का पालन नहीं करने देते।
चेतन, अब, ये चारों प्रकार के कषाय, किस-किस गति के कारण होते हैं, यह बता कर पत्र पूर्ण करूँगा।
- अनन्तानुबंधी कषाय नरक गति के कारण होने की वजह से, इन कषायों
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